रविवार, 8 मार्च 2020

यात्रा Eraic's Path की

यात्रा ERAIC'S PATH की
अर्बुदा मंदिर से हन्नीमून पाॅइंट तक
धन्नाराम, विशाल, दिनेश, मनोज राजोरा, गुरप्रीत सिंह, वीरेन्द्र
कई दिनों से कोई यादगार यात्रा नहीं की थी। इसलिए इस अवकाश दिवस पर घूमने का कार्यक्रम तय किया गया। माउंट आबू में यात्रा करने का अर्थ है जंगल और पहाड़ों से मिलना, उनको समझना और उनके साथ घूमना। इसलिए इस बार Eraic's Path पर घूमने का कार्यक्रम तय किया गया। माउंट आबू में ऐसे कुछ रास्ते हैं जो आपको जंगल की यात्रा करवाते हैं। ऐसा ही एक और रास्ता है Bailey's walk का और यह रास्ता
समतल है। आप पहाड़ के साथ-साथ लगभग 2-3 किलोमीटर घूम सकते हो। सनसेट से अगाई माता (नक्की लेक) तक का सफर। यह यात्रा हम पूर्व में कर चुके थे। अब तो Eraic's Path को देखना था। 

           रविवार का दिन वैसे हमारे लिए व्यस्तता का दिन होता है। घर की सफाई, कपड़े धोने जैसे काम काफी होते हैं,लेकिन कभी कभार व्यस्तता के बीच अवकाश का अवसर मिल ही जाता है। विद्यालय में होली का अवकाश है और उसके साथ एक रविवार भी शामिल हो गया। इस अवकाश पर मैं और मनोज दोनों घर नहीं गये। दिनांक 8,9,10- 03-2020 तक तीन दिन का अवकाश है, इसलिए इस रविवार (8 मार्च) को घूमने का विचार बनाया।
हम लगभग ग्यारह बजे घर से निकले। मैं (गुरप्रीत सिंह) मित्र मनोज राजोरा, विद्यार्थी धन्ना राम (11 art), विशाल जांगिड़(12 art), पूर्व विद्यार्थी दिनेश कुमार और एक पूर्व विद्यार्थी का भाई वीरेन्द्र।
           हमने दिनेश को ही बोला था वह अपने साथ इन विद्यार्थियों को लाया जिन में से वीरेन्द्र जंगल का अच्छा जानकार था। और उसकी जानकारी का लाभ उठाते हुए यह यात्रा सम्पन्न की।
        यह रास्ता अर्बुदा मंदिर से आरम्भ होकर जंगल और पहाडियों के बीच से होता हुआ हन्नीमून पाॅइंट के गणेश मंदिर के पास निकलता है। यह यात्रा लगभग पांच किलो मीटर की थी जिसमें हमें लगभग चार घण्टे लग गये।
           अर्बुदा मंदिर से थोड़ी दूरी पर एक मोहल्ले को पार करने पर एक बाॅर्ड लगा है Eraic's Path Natural trail का। यहाँ से दो रास्ते निकलते हैं। हम पहले भी राजकुमार सर (आबू के चर्चित पर्वतारोही, स्नैक कैप्चर, अध्यापक) के साथ टेबल राॅक तक घूम चुके थे। हमने इस बार दूसरा रास्ता चुना।

शुक्रवार, 31 जनवरी 2020

पंचायत आम चुनाव- 2020

ग्राम पंचायत आम चुनाव-2020
ग्राम पंचायत-अजारी, पिण्डवाड़ा, सिरोही, राजस्थान

जीवन में चुनाव संबंधित नये नये अध्याय जुड रहे हैं। सर्विस को तीन वर्ष भी न हुयेऔर तीन बार अलग-अलग चुनाव और चुनाव मत गणना का कार्य संपादित भी किया।
लोक सभा चुनाव, विधान सभा चुनाव फिर माउंट आबू नगर पालिका चुनाव मतगणना और सन् 2020 के आरम्भ में जनवरी में ग्राम पंचायत चुनाव का एक और अनुभव जीवन में शामिल हो गया।
       सन् 2020 में राजस्थान में ग्राम पंचायत के चुनाव थे। ये चुनाव तीन चरण में थे। इस चुनाव के दौरान कुछ नये अनुभव के साथ-साथ बहुत कुछ नया साथ जुड़ता चला गया।
       प्रत्येक चुनाव में तीन ट्रेनिंग होती है पर इस चुनाव में मात्र दो ट्रेनिंग दी गयी लेकिन जरूरत तीन ट्रेनिंग की ही थी। दूसरी ट्रेनिंग भी वास्तव ट्रेनिंग नहीं होती यह चुनाव पर जाने से पहले चुनाव संबंधित समस्त सामग्री एकत्र करने और रवाना होने का दिन होता है उस दिन चुनाव अधिकारी आशीर्वाद और सफलता की प्रार्थना करते हैं।
      चुनाव ट्रेनिंग की एक-एक कर जब सूचना आ रही थी तो मेरे विद्यालय में जिन साथियों की चुनाव में डयूटी लगनी थी उनको सूचना प्राप्त हो गयी थी लेकिन एक मैं ही बचा हुआ था। चुनाव से बचने वाले को भी एक अजीब सी खुशी होती है और उस पर अगर चुनाव ग्राम पंचायत के हो तो ज्यादा खुशी होती है। लेकिन मेरे साथ एक ट्रेजडी यह हुयी की किसी अनजान 
साथी ने चुनाव डयूटी में से अपना नाम हटवा कर वहाँ मेरा नाम जुड़वा दिया। और इस तरह से मेरी खुशी वाष्प की तरह गायब हो गयी।
     दिनांक 05.01.2020 को हमारे विद्यालय के तीन साथी बाबू सिंह जी (प्राध्यापक इतिहास), हुकम चंद नामा (व्याख्याता वाणिज्य) और मैं (गुरप्रीत सिंह, व्याख्याता हिन्दी) और हमारे साथ बालिका विद्यालय के जमुना लाल जी यादव थे। हम एक ट्रेनिंग करके आये थे।
05.02.2020- ट्रेनिंग 
प्रशिक्षण के पश्चात चुनाव के तीन चरण थे। क्रमशः ....29 जनवरी तक। प्रथम‌ दो चरणों में मेरी डयूटी नहीं आयी और फिर तीसरे चरण की डयूटी के लिए एक एक कर के साथी मित्रों के नाम आते गये पर मेरा नाम कहीं भी न था। मुझे पूर्व विश्वास हो चला था की इस बार चुनाव में जाने से बच जायेंगे और मैं‌ इन दिनों की नीतियां बनाता रहा की मुझे क्या करना है।
       26 जनवरी 2020 को विद्यालय में गणतंत्र दिवस का उत्सव था। एक उमंग और जोश का दिन था। उसी दिन शाम लगभग तीन बजे पुनीत विश्नोई सर का वाटस एप संदेश आया की आपकी डयूटी आ गयी है। उन्होंने डयूटी प्रपत्र की फोटो भी भेज दी थी।
इतने दिनों का उत्साह, खुशी एक झटके से खत्म हो गयी। जब यह उम्मीद थी की इस बार चुनाव में जाना नहीं होगा और उस पर अचानक से ऐसी खबर आ जाना बहुत दुखदायी सा होता है।
       बाकी दो चुनावों से यह चुनाव अलग है। इसके दो कारण है। पहले दोनों चुनाव लोक सभा और विधान सभा के दौरान में PO-1 रहा हूँ, इस पद पर मेरा काम सिर्फ मेरा होता है। लेकिन जब 26 जनवरी को जो सूचना मिली उसके अनुसार मुझे इस चुनाव में P.O. (पीसाठीन अधिकारी) बनाया गया था। अर्थात् मैं अपनी चुनाव टीम का प्रमुख था और चार व्यक्ति मेरे अधीन थे।
      तृतीय चरण के लिए 21 जनवरी तक डयूटियां लग गयी थी लेकिन मेरी डयूटी 26 जनवरी को आयी। तो कहीं न कहीं तो कुछ गड़बड़ अवश्य थी।
      29 जनवरी को चुनाव थे। ग्राम पंचायत के चुनाव के दौरान तीन दिन ग्राम पंचायत पर ही ठहरना पड़ता है। 28 जनवरी की सुबह सात बजे हम‌ घर से रवाना हुए। हमारे विद्यालय से पुनीत विश्नोई(व्याख्याता,कार्यवाहक प्राधानाचार्य), पंकज मकवाना (प्राध्यापक) देलवाड़ा स्कूल से अजय पंवार जी (गणित) और माउंट के एक और शिक्षक मित्र सूरज जी। हम पांच सदस्य पंकज जी की गाड़ी (maruti celerio) से रवाना हुए और आबू रोड़ से पुनीत जी को साथ लिया।
      9 बजे से कार्य आरम्भ था। चुनाव अधिकारी मंच पर एक एक कर उपस्थित हो रहे थे और उनके सामने चुनाव कार्मिक बैठे थे। मैं भी अपनी निर्धारित सीट पर जब पहुंचा तो मेरे दो साथी वहाँ पहले से उपस्थित थे।  
सिरोही जिला कलैक्टर सुरेन्द्र सोलंकी जी आशीर्वचन देते हुए।
यहाँ पहुंच कर मुझे पता चला की मेरी जगह पर पहले कोई दलीप शर्मा नाम‌क व्यक्ति था लेकिन उसने अपनी डयूटी कैंसिल करवा ली तो फिर मेरा नंबर आया। ऐसा एक प्रकरण टीम में और भी रहा। इस दौरान हमारे साथ PO.-2 जो था वह भी प्रशिक्षण खत्म होने के पश्चात अपनी डयूटी रद्द करवा कर निकल गया और उसकी जगह अरूण कुमार जी आये।
हमारे टीम युवा थी। हमें पिण्डवाड़ा तहसील में अजारी नामक ग्राम पंचायत मिली थी जहां हमें सरपंच,पंच और उप सरपंच के चुनाव करवाने थे।‌ चुनाव संबंधित सामग्री प्राप्त करने के पश्चात जब हम निर्धारित बस में बैठे तो पता चला की उस पंचायत के लिए सात पोलिंग पार्टियां जा रही हैं। दो बसों में सवार होकर हम‌ अपने निर्धारित मार्ग पर चले। हां, चुनाव पार्टी को जो रोड़ मैप दिया जाता है या जो मार्ग बताया जाता है उसे उसी मार्ग पर ही चलना होता। रास्ते में बचे 'चुनाव चैक पोस्ट' पर उसे अपनी उपस्थिति देनी होती है और यही क्रम आते वक्त भी रहता है।
       गांव में दो उच्च माध्यमिक स्तर के विद्यालय हैं एक लड़कों का और एक बालिका। गांव की जनसंख्या का अनुमान यही से लगाया जा सकता है दो उच्च माध्यमिक राजकीय विद्यालय और पोलिंग के लिए सात पार्टियां। हमारे पास कुल 926 मतदाता थे। पार्टी सख्या 48,49,50 और 51 एक विद्यालय में रुकी और पार्टी संख्या 52,53 और 54 बालिका विद्यालय में।

    दिनांक 28.02.2020 की रात को हमें आवश्यक कार्य सम्पन्न करने थे, क्योंकि आगामी चुनाव के दिन समय नहीं मिलता।
हमारी टीम- 

PO-   गुरप्रीत सिंह
PO1- विनोद कुमार
PO2 - अरूण जी
PO3- दीपक शर्मा
PO4- सौरभ

      टीम में अरुण जी को छोड़ कर बाकी युवा ही थे। लेकिन कार्य की दृष्टि से देखें तो विनोद जी सबसे ज्यादा सक्रिय व्यक्ति रहे। वहीं चुनाव के वक्त पोलिंग बूथ पर सौरभ की सक्रियता वास्तव में प्रशंसनीय रही।
     दिनांक 29.02.2020 की सुबह आज बजे चुनाव आरम्भ थे जो शाम पांच बजे तक चलने थे। चुनाव के दौरान हमें कोई विशेष परेशानी नहीं आयी क्योंकि एक तो हमारी टीम सक्रिय और दूसरा आवश्यक कार्य हमने रात को ही निपटा लिया था। चुनाव के दौरान जो समस्या आयी वह थी जनता की।
      एक तो एक समय दो मत (वोट) डालने थे एक सरपंच का जो मशीन (EVM) से डालना था और दूसरा वार्ड पंच का जो मतपत्र से डालना था। पंचायत की जनसंख्या के दृष्टि से अधिकांश अशिक्षित थे, और उसमें से वृद्ध व्यक्ति तो दृष्टिदोष से पीडित भी थे। अधिकांश लोगों को यह भी पता नहीं था की वोट कहां डालना था उनको‌ समझाना वास्तव में बहुत परेशान का काम था।
      कुछ वृद्ध तो ऐसे थे जो मतपत्र को EVM में डालने की कोशिश करते और जब मतपत्र वहाँ न डलता तब पूछते इसको कहां डालें।
      यह समस्या पूरे दिन बनी रहीं। इसी समस्या को देखकर सौरभ ने मुझसे कहा की "सर,आप एक बार अपना काम छोड़ दीजिएगा और लोगों को थोड़ा समझाये की EVM का बटन कैसे दबाना है और मतपत्र कहां डालना है।"
हालांकि दोनों के लिए अलग-अलग जगह तय थी।

वह रात एक बजे का खाना
       दिनांक 29.02.2020 को पंच-सरपंच की वोटिंग शाम पांच बजे खत्म हो गयी लेकिन मशीन सील करना और आवश्यक कागजात कार्यवाही में सात बजे गये। उसके पश्चात सरपंच और वार्ड पंच का परिणाम भी देना था।
लगभग 7:30 हम स्ट्राॅग रूम पहुंचे जहा अन्य पार्टियां भी उपस्थित थी। विद्यालय का मुख्य गेट बंद कर दिया गया और पुलिस सुरक्षा के लिए तैनात कर दी गयी। सरपंच पद के प्रत्याशी स्ट्राॅग रूम में उपस्थित थे। लगभग आठ बजे सरपंच की EVM से गणना आरम्भ की और तीस मिनट से भी कम समय में परिणाम सुना दिया गया।
श्रीमति.....को सरपंच घोषित किया गया। जो की एक अशिक्षित महिला थी जिसे अपने हस्ताक्षर तक करने नहीं आते थे।
      PRO महोदय जब उसे सरपंच पद की शपथ दिला रहे थे तो उसके लिए यह काम बहुत ही मुश्किल साबित हो रहा था। उसे शब्द समझ में नहीं आ रहे थे लेकिन जैसे-तैसे उसे शपथ दिला कर सरपंच का प्रमाण पत्र दिया।
विनोद जी में चुटकी लेते हुए कहा की -"यह लोकतंत्र है जहां शिक्षित लोग एक अशिक्षित के लिए चुनाव करवाते हैं और जनता एक ऐसे आदमी को चुनती है जिसे कुछ समझ में ही नहीं आता।"
खैर हम वहाँ अपने कर्तव्य ला निर्वाह कर रहे थे ज्यादा टिप्पणी उचित न थी।
      सरपंच परिणाम के पश्चात वार्ड पंच के परिणाम घोषित करने थे। यह इसलिए मुश्किल थे की यह मतपत्र थे चुनाव थे। सभी पार्टियाँ अपनी-अपनी मतपेटी लेकर बैठ गयी। हमारे पास वार्ड नंबर चार और पांच था। हमसे पहले वाली पार्टी के पास वार्ड नंबर एक, दो और तीन था।
सबसे पहले हमने वार्ड चार और पांच के मतपत्र अलग-अलग किये और फिर उनको प्रत्याशी के हिसाब से जमाना आरम्भ किया।
      वार्ड नंबर चार में मात्र दो प्रत्याशी थे और पांच में चार प्रत्याशी थे। यह समय लेने वाला पर रोचक काम था। हमारे सामने पंच पद के प्रत्याशी बैठे बड़ी उत्सुकता से हमें ताक रहे थे। आखिर उनके भविष्य का निर्णय होने जा रहा था।
हम सात पार्टियों में से तीसरे नंबर पर जिन्होंने अपना परिणाम तैयार कर लिया था। RO उत्तम सिंह जी ने वार्ड नंबर चार और पांच का जब निर्णय सुनाया तो हमारा दिल धड़क रहा था। कारण हमने रिजेक्ट वोट ज्यादा निकाले थे।
जिसका डर था वही हुआ एक हारने वाले व्यक्ति ने कहा "हमें तो आप रिजैक्ट वोट दिखा दीजिएगा।"
मुझे लगा अब समस्या पैदा हो सकती है क्योंकि हारने वाला उन रिजैक्ट वोटों को अलग दृष्टि से देखेगा उसके लिए नियम महत्व नहीं रखते। लेकिन कमाल सौरभ जी ला देखिएगा जिन्होंने उत्तर दिया "वोट दिखाना काम साहब (RO) का है हमारा नहीं, जब वो फ्री होंगे तब देख लेना।"
      कुछ मिनट रूकने के बाद वह व्यक्ति भी चला गया। और हमने चैन की सांस ली। हम अब अपने कार्य से मुक्त थे। मित्र सूरज जी की पार्टी सबसे अंत तक‌ मतगणना में‌ लगी हुयी थी, वे इतना लेट कैसे हुये यह तो खैर पता न लगा।
रात के बारह बज गये और सुबह से कुछ भी नहीं खाया था। इसलिए हम रात को बस से निकले। अजारी गांव हाईवे पर ही स्थित है लेकिन रात को बारह बजे सब ढाबे और होटल बंद थे।‌ लेकिन इस हाईवे का प्रसिद्ध होटल बाबा रामदेव खुला मिलता है। हम वहाँ पहुंचे और खाना खाया। खाना खाने के कुछ समय पश्चात चाय का आनंद लिया। यह रात का खाना हमें याद रहेगा। लगभग एक बजे के बाद हम होटल से वापिस रवाना हुये।
रात को अभी फोन देखना बाकी था। मैं और सौरभ मोबाइल चला रहे थे।
"अब सो जाओ, सुबह जल्दी उठना है।"
" अभी रजाई में घुसकर फोन चलाना बाकी है।" -दीपक जी ने चुटकी ली तो सब फोन बंद कर सो गये।


दिनांक- 30.02.2020

      इस दिन पद और सरपंच मिल कर उप सरपंच का चुनाव करते हैं। मेरी इच्छा थी इस चुनाव को देखने की लेकिन कागजी कार्यवाही इतनी थी की सुबह नहाने का समय भी नहीं मिला। किसी भी चुनाव में बड़ी परेशानी आवश्यक और अधिकांश अनावश्यक (?) परिपत्रों को भरने में मुश्किल आती है। अक्सर समझ में ही नहीं आता की किस लिफाफे में कौन कौन से प्रपत्र डालने हैं हालांकि सभी लिफाफों के उपर पूरी जानकारी दी गयी होती है। इसलिए अकसर साथ वाली टीम‌ से या अन्य साथी मित्रों से फोन पर संपर्क किया जाता है। मैंने मनोज जी से संपर्क लिया और वहीं सूरज जी हमारे पास आते थे।

सिरोही वापसी
     हम लगभग दो बजे (PM) सिरोही पहुंचे। यहाँ अपनी चुनाव सामग्री जमा करवानी थी। एक हाॅल के अंदर सब व्यवस्था थी। अलग-अलग तीन काउंटर बने थे।
     सबसे पहले EVM मशीन जमा करवानी थी और उसके साथ कुछ प्रपत्र भी। जैसे ही हम EVM जमा करवाने लगे तो एक कार्मिक ने कहा-" सर, मशीन पर टैग होना आवश्यक है। पहले मशीन पर टैग लगायें।"
मैं और विनोद जी वापस हुये, हाथ में पकड़े प्रपत्र भी सब व्यस्त हो गये। सील और टैग लगाकर पुनः मशीन जाम करवाने गये तो एक और समस्या पैदा हो गयी।
"वार्ड पंच वाला प्रपत्र जाम करवायें।"
अब अभी जगह ढूंढ लिया पर वह प्रपत्र न मिला। एक एक कागज, एक एक फाइल, एक एक जेब मैंने देख ली पर वह प्रपत्र पता नहीं कहां चला गया।
      मैं हैरान और सब परेशान। सबको घर जाने की जल्दी थी पर यहाँ तो अब लगता था कहीं जाना संभव नहीं। अचानक मेरे दिमाग में एक विचार आया की एक औए भी प्रपत्र था जिसमें मतों का प्रतिशत लिखा होता है, वह भी कहीं नजर नहीं आ रहा।
     मैंने सबको यह बात बताई लेकिन किसी को उस प्रपत्र का पता ही नहीं था, तो कौन 'हां' करता।
"सर, कागज तो आपको मैंने आपको दे दिये थे, आपने कहां रख दिये?"- विनोद ने कहा।
" वापस उसी गांव चल कर देखते हैं, आयद कमरे में रह गये हों?"- सौरभ का सुझाव था।
"नहीं, मुझे अच्छी तरह से पता है, वहाँ कोई भी कागज नहीं रहा। चलो उस कागज को छोड़ो लेकिन 'प्रतिशत' वाला तो मुझे अच्छी तरह से पता है मेरे पास था।"- मैंने कहा।
" तो अब कहां चला गया सर, यह आपकी मिस्टेक है।"-विनोद ने पुनः कहा।

        हां, उनकी बात भी सही थी आखिर कागजों को देखना मेरा ही काम था, तो आखिर वह कागज कहां चले गये। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।
       एक बार फिर मैं अंदर- बाहर चक्कर लगाकर आया, कुछ ने सुझाव दिया की सील लगे लिफाफे खोलकर देख लो शायद इनमें गलती से न डाल दिये हों। लेकिन मुझे एक बात अच्छी तरह से पता थी की सील लिफाफों में सब कागज सही हैं और जो कागज बाहर चाहिये थे वह बाहर ही थे। अब बाहर थे तो कहां चले गये।
विनोद जी इधर-उधर चक्कर लगाकर आये और खुशी से कागज दिखाकर बोले-"यही कागज थे ना?"
सब के चेहरे खुश हो गये।
"कहां थे कागज?"
" जब आप मशीन पर सील लगा रहे थे, तब आपने मेरे को दिये थे और मैंने अपनी जिंस की बैक जेब में डाल लिये थे।"

     एक नंबर काउंटर से मुक्त होकर जब दो नंबर काउंटर पर पहुंचे तो वहाँ भी एक समस्या आ गयी। वहाँ एक लिफाफा नहीं मिला।
      सब लिफाफे एक बैग में थे। लेकिन अकस्मात एक लिफाफा तरूण जी को नहीं मिला, और जब वहाँ से हटकर पुनः देखा तो वह लिफाफा बैग में ही था। अब एक बार फिर दो नंबर काउंटर की लाइन में जा लगे।
शेष बची सामग्री काउंटर नंबर तीन पर जमा करवा कर और O.D. (Official Duty) ली,मैंने अपने हस्ताक्षर कर सभी को O.D. दे दी।
      एक सैल्फी और मुस्कान के साथ, भविष्य में कभी‌ मिलने का वायदा करके हम सब विदा हो गये।
पंकज जी की लगातार काॅल आ रही थी। वे कार के पास मेरा इंतजार कर रहे थे।
पंकज जी, पुनीत विश्नोई जी, अजय पंवार जी, सूरज जी और मैं माउंट की तरफ रवाना हो लिये।


 
तलहटी में चाय का स्वाद लेते हुए।

रविवार, 22 दिसंबर 2019

रणथम्भौर की यात्रा

रणथम्भौर दुर्ग की अविस्मरणीय यात्रा

  दिसंबर 2019 में राजस्थान के सवाईमाधोपुर के प्रसिद्ध अभयारण्य में स्थित रणथम्भौर दुर्ग की यात्रा करने का अवसर मिला। यह यात्रा मेरे लिए बहुत रोचक रही।
विद्यालय में शिक्षक सम्मेलन का दो दिवसीय अवकाश था और एक रविवार भी साथ में शामिल था। तीन दिन में कार्यस्थल (माउंट आबू) से घर (बगीचा, श्रीगंगानगर) आवागमन संभव नहीं। इसलिए जयपुर छोटी बहन के पास जाने का विचार था।

हुकम चंद नामा जी हमारे विद्यालय के वाणिज्य के एकमात्र व्याख्याता है। वे सवाईमाधोपुर के मूलनिवासी है। उन्होंने प्रस्ताव रखा की भाई मेरे साथ सवाईमाधोपुर चलो, वहाँ घूम आना, फिर जयपुर आ जा‌ना। प्रस्ताव मुझे भी अच्छा लगा, साथ में जयपुर भी जाना हो जायेगा।

 मैं और हुकम जी 05.12.2019 को आबू रोड़ से 3:00 PM ट्रेन से रात ग्यारह बजे जयपुर पहुंचे और आगे ट्रेन से सवाईमाधोपुर और रात को तीन बजे घर पहुंचे।

06.12.2019 शुक्रवार लगभग 11 बजे हम विश्व प्रसिद्ध रणथम्भौर अभयारण्य पहुंचे। यहाँ दो दर्शनीय स्थल है। एक तो दूर-दूर तक विस्तृत जंगल और दूसरा राणा हम्मीर का किला। हम यही किला देखने गये थे। अभयारण्य फिर कभी देखेंगे।

लगभग चार किलोमीटर घने जंगल में सड़क यात्रा करने के पश्चात गंतव्य पर पहुंचे। इस किले की एक बड़ी विशेषता यह है की यह दूर से दिखाई नहीं देता। हालांकि यह अन्य किलों की तरह पहाड़ी पर स्थित है।
दुर्ग का बाहरी दृश्य
इसीलिए अबुल फजल ने इस दुर्ग के विषय में लिखा था।
 "अन्य सब दुर्ग नंगे हैं जबकि यह दुर्ग बख्तरबंद है।" इसका कारण यह है की चारों तरफ पहाड़ियों से घिरे होने के कारण यह दुर्ग दूर से नजर नहीं आता। यह विन्ध्याचल की पहाड़ियों के मध्य स्थित है।

 रन और थम्भ नाम की पहाडियों के बीच 12 कि.मी. की की परिधि में बना यह दुर्ग के तीनों और पहाडों में प्राकृतिक खाई बनी है जो इस किले की सुरक्षा को मजबूत बनाती है। मैं कल्पना कर सिहर उठता हूँ कैसे आक्रमणकारी इन गहरी खाईयों को पार करके इस दुर्ग में घुसे होंगे।

जब किले के द्वार पर पहुंचे तो एक अजीब सा अहसास अंदर तक समाता चला गया। एक योद्धा का किला, अपने समय की गौरव गाथा सुनाता किला। और आज बेबस उदास सा, अपने हालात पर आँसू बहाता किला। काफी ऊंचाई पर स्थित इस किले को देखने के लिए गरदन ऊंची उठानी पड़ती है।

        किले में प्रवेश करने पर यहाँ लगा एक शिलापट रणथम्भौर दुर्ग के स्थापना, शासक आदि की संक्षिप्त जानकारी प्रदान करता है। यह संक्षिप्त जानकारी भी काफी उपयोगी है। 
पुरातत्व विभाग द्वारा लगाया गया शिलापट
'रणथम्भौर दुर्ग भारत के सर्वाधिक मजबूत दुर्गों में से एक है जिसने शाकम्भरी के चाहमान साम्राज्य को शक्ति प्रदान करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की। यह कहा जाता है की इस दुर्ग का निर्माण महाराजा जयंत ने पांचवीं शती ई. में‌ किया था। बाहरवी शती पृथ्वीराज चौहान आने तक यहाँ यादवों ने शासन किया। हम्मीर देव (सन् 1283-1301ई.) रणथम्भौर का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था, जिसने कला और साहित्य को प्रश्रय दिया एवं सन् 1301 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का वीरतापूर्ण सामना किया। इसके बाद दुर्ग पर दिल्ली के सुल्तानों का अधिकार हो गया। बाद में यह राणा सांगा (1509-1527 ई.) तथा तत्पश्चात मुगलों के नियंत्रण में रहा।
        यह दुर्ग रणथम्भौर व्याघ्र अभयारण्य के ठीक मध्य स्थित है। विशाल रक्षा प्राचीर से सुदृढ़ इस दुर्ग में सात दरवाजे- नवलखा पोल, हथिया पोल, गणेश पोल, अंधेरी पोल, सतपोल, सूरज पोल एवं दिल्ली पोल है।
       दुर्ग के अंदर स्थित महत्वपूर्ण स्मारकों में - हम्मीर महल, रानी महल, हम्मीर बड़ी कचहरी, छोटी कचहरी, बादल महल, बत्तीस खम्भा छतरी, झंवरा-भंवरा(अन्न भण्डार),मस्जिद एवं हिन्दू मंदिरों के अतिरिक्त एक दिगम्बर जैन मन्दिर तथा एक दरगाह स्थित है। यहाँ स्थित गणेश मंदिर पर्यटकों के सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र है।'


       ऐतिहासिक, धार्मिक आदि जगहों के साथ कुछ न कुछ किंवदंतियां जुड़ ही जाती हैं। इनमें कितना सत्य है और कितना असत्य यह तय करना थोड़ा मुश्किल अवश्य होता है लेकिन इनमें जो रोचकता होती है वह रोमांचित अवश्य कर देती है। ऐसी ही एक किंवदंती यहाँ एक दरवाजे के पास चट्टान पर 'चिह्नित निशानों' के सम्बन्ध में भी प्रचलित है।
        दरवाजे के पास से किले की दीवार की ऊंचाई बहुत ज्यादा है। वहीं एक चट्टान पर कुछ निशान हैं देखने मात्र से वे निशान घोड़े के खुर के समान नजर अवश्य आते हैं। ऐसा माना जाता है की एक बार युद्ध के दौरान राणा हम्मीर ने अपने घोड़े को यहाँ से छलांग लगवा दी थी। और घोड़ा यहीं से काफी ऊंची दीवार पर चढ गया था। ये निशान उसी दौरान के हैं।
अब इस कहानी में सत्य और असत्य को खोजना जरा मुश्किल है पर उस दीवार को देखकर जो रोमांच होता है वह सत्य है।
चट्टान पर चिह्नित निशान
        इस के दुर्ग के सात दरवाजे हैं और उनकी एक बड़ी विशेषता ये है की ये सब 90 डिग्री के कोण पर हैं। किसी भी दरवाजे के आगे ज्यादा जगह नहीं है, यह सुरक्षा की दृष्टि से उत्तम उपाय है। क्योंकि आक्रमणकारी इससे दरवाजे को क्षति नहीं पहुंचा सकते।
दुर्ग का एक दरवाजा




















दुर्ग में आगे जाने पर एक जगह पूरे दुर्ग का एक शिलापट पर चित्र अंकित है। वहाँ से दुर्ग को समझना आसान हो जाता है।
     राणा हम्मीर द्वारा अपनी पिता जैत्र मल की स्मृति में निर्मित 32 स्तम्भ की छतरी दर्शनीय है। और इसी छतरी के नीचे एक शिवलिंग आकर्षण का केन्द्र है।
     इसी छतरी से थोड़ी सी दूरी पर एक अर्द्ध निर्मित छतरी भी नजर आती है। जिसको अब पेड़-पौधों और लताओं ने अपने आगोश में छिपा लिया।
32 स्तम्भ छतरी
अर्द्ध निर्मित छतरी

    अपने समय का मजबूत दुर्ग आज के अधिकांश भाग खण्डित हो चुके हैं। समय की मार और प्रशासन की लापरवाही एक दुर्ग के अंग-अंग पर अंकित है। कहीं किसी महल का नाम नहीं, कहीं कोई किले का महत्व दर्शाने वाली जानकारी दर्ज नहीं, इतनी उपेक्षा क्यों?

      रणथम्भौर दुर्ग किसी शासक के कारण चर्चित रहा है तो वह है राणा हम्मीर। सन् 1282-1301तक यहां हमीर का शासन रहा । हम्मीरदेव का 19 वर्षो का शासन इस दुर्ग का स्वर्णिम युग था। हम्मीर देव चौहान ने 17 युद्ध किए जिनमे 13 युद्धों में उसे विजय प्राप्त हुई। राणा हम्मीर और अलाउद्दीन खिलजी का सन् 1301का वह युद्ध जिसमें हम्मीर को पराजय का सामना करना पड़ा और इसी के साथ इस दुर्ग का स्वरुप भी बदल गया।
लेकिन राणा हम्मीर की शौर्यगाथाएं आज भी जीवत है। दुर्ग के कण-कण से लेकर किंवदंतियों से गुजरती हुयी ये गाथाएं इतिहास के पन्नों पर अमिट है।

       दुर्ग में एक प्रसिद्ध त्रिनेत्र गणेश मंदिर है और वर्तमान में इस दुर्ग का महत्व इसी वजह से ही है, अधिकांश लोग गणेश दर्शानार्थ ही यहाँ आते हैं। गणेश जी आधी मूर्ति है। इसके पीछे भी एक रोचक किवंदती है की त्रिनेत्र गणेश जी मूर्ति जमीन से प्रकट हुयी थी।

      गणेश मंदिर के प्रागण में घूमते लंगूर भी दर्शकों को आकृष्ट भी करते हैं और हल्का सा परेशान भी।
मंदिर परिसर में
     मंदिर के प्रांगण में खड़े होकर देखे तो यहाँ से आगे की किले का परकोटा दिखाई देता है लेकिन मित्र हुकुम जी के अनुसार वहाँ अकेले में जाना खतरनाक हो सकता है। आगे पूरा जंगल था, ध्वस्त दीवारें ही दिखाई देती थी। मेरी इच्छा होती है की उन जगहों को भी देखा जाये की आखिर वहाँ क्या था? लेकिन हर इच्छा पूर्ण कहां होती थी।

         मंदिर का रास्ता किले के परकोटे के साथ-साथ है। यहाँ से वापस निकले तो रास्ते में कुछ मुस्लिम धर्म के मस्जिद के अवशेष दिखाई दिये। वे भी अधिकांश खण्डित हो चुके है ये शायद उस समय के दरगाह-मस्जिद आदि रहे होंगे जब यहाँ मुस्लिम शासकों ने शासन किया था।

        इसके पास ही एक तालाब है जिसे पदम तालाब कहा जाता है। इस तालाब के किनारे बने झरोखे वास्तव में अदभुत है, उस समय के परिश्रमी लोगों की कला के प्रतीक हैं। झरोखे से थोड़ा आगे एक छोटा सा मकान है जिससे कुछ सीढियां नीचे तालाब में उतरती हैं। कभी यहाँ भी महफिले गुलजार रही होंगी, कभी यहाँ भी खुशियाँ खेलती होंगी, कभी यहाँ भी राजा-रानी ने आनंद लिये होंगे, लेकिन अब तालाब कचरे से भरा हुआ है।
रास्ते से थोड़ा अलग हटकर एक छोटा सा काली माता का मंदिर भी है। वहाँ से जंगल के मध्य से होते हुए हम एक और मंदिर तक पहुंचे। वह एक जैन मंदिर था। जैन मंदिर पुनः मुख्य मार्ग पर पहुंचे यहा से एक और रास्ता निकलता है। एक बड़ी सी झील के साथ-साथ हम आगे बढे तो यहाँ एक बड़ी दरगाह नजर आयी। यह दरगाह मुगल शासकों के इस दुर्ग पर आधिपत्य की याद दिलाती है। इस दरगाह पर छोटा सा शिलापट लगा था जिस पर लिखा था- "दरगाह काजी पीरशाह सदरूद्दीन"

        यहाँ पर एक विशाल दरवाजा है लेकिन समय के साथ खण्डहर हो चुका है। इस दरवाजे से आगे काफी महल हैं जो मुझे काफी आकर्षक लगे। शायद ये महल मंत्री वर्ग के रहे होंगे। झील के पास ये महल, हम्मीर महल से हालांकि कुछ दूर अवश्य स्थित है पर यहाँ से जंगल और दूर स्थित एक अन्य झील का आकर्षक दृश्य नजर आता है।

     हमसे पहले भी कुछ लोग वहाँ घूम रहे थे। वैसे किले संरक्षकों की तरफ से वहाँ न तो कोई सूचना पट था न ही कोई मार्गदर्शक। अपनी इच्छा से आप वहाँ स्वतंत्रता से घूम सकते हैं लेकिन जंगल के जानवरों का एक अदृश्य डर भी साथ रहता है।

         पहले महल में हमें कुछ विशेष न लगा लेकिन उससे थोड़ा सा आगे एक और महल था जिसकी मरम्मत का कार्य चल रहा था। वहाँ पड़ा सामान देखकर हमने यह अंदाजा लगाया था। हालांकि यह महल भी क्षतिग्रस्त था लेकिन फिर भी कुछ हद तक दर्शनीय है। हम इसकी छत पर पहुंचे। इसकी छत से दूर तक का नजारा किया जा सकता है।
क्षतिग्रस्त होने का दर्द
     छत से एक और मकान नजर आया। वह एक यहाँ से काफी दूर एक पहाड़ी पर स्थित था। वहाँ जाना संभव न था।

     यहाँ काफी समय तक घूमने के पश्चात हम वापस चल दिये। रास्ते में एक 'दुल्हा महल' नजर आया। एक मात्र यही महल था जिस पर एक छोटा सा शिलापट लगा था और हमारी दृष्टि में एक मात्र यही महल था जिसे बाहर से देखकर हम संतुष्ट हो गये।

      वर्तमान में रणथम्भौर दुर्ग को 'राजस्थान के पर्वतीय दुर्ग' श्रृंखला नामांकन के तहत विश्व की सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक धरोहर के संरक्षणार्थ कन्वेंशन द्वारा विश्व दाय सूची में सम्मिलित किया गया है

        रणथम्भौर दुर्ग का यह सफर हमारे लिए यादगार रहेगा। विशाल जंगल के मध्य चट्टानों के उपर स्थित यह दुर्ग वास्तव में अदभुत है लेकिन समय और प्रशासन की मार इस दुर्ग को खत्म कर रही है।

     फिर भी यहाँ देखने से ज्यादा महसूस करने लायक बहुत कुछ है। किसी भी धरोहर को देखने अए ज्यादा महत्व उसको महसूस करने में है। जब आप उस स्थल, उसकी कहानियों को अपने अंदर अनुभव करते हो तो आप स्वयं को उस युग में उपस्थित पाते हो।



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रविवार, 10 मार्च 2019

अगाई माता- ओरिया, माउंट आबू

रविवार का दिन अवकाश का दिन होता है। ये दिन या तो घर की साफ- सफाई में बीतता है या फिर कहीं घूमने में। रविवार 3.03.2019 को मैं और साथी मनोज कुमार भी घूमने निकले।
माउंट आबू का एक गांव है 'ओरिया'। वहाँ के विद्यालय में मनोज जी शिक्षक हैं। विद्यालय बच्चों का एक छोटा सा टूर बना घूमने का तो हमें भी बुला लिया। हमारे बाकी शिक्षक मित्र घर गये हुए थे। हम दोनों खाली थे, तो ओरिया चले गये।


            हम लगभग 11 AM ओरिया पहुंचे। कुछ समय बाद बच्चे भी आ गये। वे संख्या में आठ थे और दो हम, कुल दस।'
                 'गुरुशिखर खगोल भौतिक विज्ञान वैद्यशाला' के सामने से होता हुआ एक रास्‍ता जाता है 'अगाई माता मंदिर'। हमारा आज का कार्यक्रम भी इसी मंदिर का था। जंगल और पहाड़ियों के बीच से निकलता कच्चा-पक्का, अनगढ रास्ता कई छोटे-बड़े घूमाव के बाद हमें मंदिर ले गया।
जंगल का रास्ता
रास्ते का सफर हाल ज्यादा नहीं है, लगभग तीस-चालीस मिनट का सफर होगा, लेकिन रास्ते की हल्की-हल्की चढाई अवश्य परेशान करती है। जंगल के अंदर झाड़ियों के बीच से कुछ पगडंडियां सी निकलती दिखाई देती हैं, मैं जिन्हें देखकर अक्सर सोचता रहता हूँ के छोटे-छोटे रास्ते कौन बनाता है। तब एक बच्चे ने समाधान किया "सर, रास्ते भालू बनाते हैं। भालू अक्सर यहाँ घूमते हैं। वे इन रास्तों से जंगल में चले जाते हैं।"
                        रास्ते में एक जगह जमीन के अंदर एक गड्डा दिखाई दिया तो बच्चों ने बताया की भालू 'चिंटी, मकोड़े' आदि के बिल को खोदकर उ‌नको खा जाता है। यह किसी चिंटी आदि का बिल होगा जिसे भालू ने खोदा है।
भालू की करामात


                  बच्चों का साथ तो रास्ते को और भी मनोरंजन बना देता है, बच्चे स्कूल की चर्चा के साथ-साथ एक-दूसरे की शिकायतें भी करते चलते हैं। कुछ बच्चे एक दूसरे के किस्से भी सूना देते हैं।
एक पहाड़ी पर बना 'अगाई माता मंदिर' दर्शनीय है। हालांकि पहाड़ी ज्यादा ऊंची नहीं है, लेकिन वह पहाड़ी अपनी श्रृंखला की अंतिम‌ पहाड़ी है। इसी अंतिम पहाड़ी पर यह मंदिर स्थित है। उसके चारों तरफ और भी काफी छोटी-बड़ी पहाडियां नजर आती हैं। यहाँ से गुरु शिखर नजर आता है और माउंट आबू की तरफ के कुछ गांव भी।
                'अगाई माता' यहाँ के राजपूत समाज की देवी है। इसका इतिहास क्या है, यह तो खैर पता नहीं चला और बच्चों को भी इस विषय में कोई जानकारी नहीं। एक बात यह पता चली की पहले यह मंदिर छोटा सा था लकिन कुछ असामाजिक तत्वों ने इसका गुबंद तोड़ दिया और मंदिर को भी क्षति पहुंचाई। उसके बाद गांव वालों ने सहयोग से इस मंदिर का पुन: निर्माण किया। वर्तमान मंदिर भव्य और बड़ा है। इसी के साथ छोटा मंदिर में अवस्थित है।
अगाई माता मंदिर
            हम मंदिर की पहाड़ी पर घूमते कुछ देर घूमते रहे और फोटोग्राफी करते रहे। विभिन्न कोणों से फोटोग्राफी करने बाद हमने वापसी का रूख किया।
            वापसी में आते वक्त एक छोटा सा शिव मंदिर भी दिखाई दिया तो बच्चे उस मंदिर में भी ले गये। यह मंदिर भी रास्ते से हटकर एक पहाड़ियों के नीचे पानी के बहाव वाली जगह पर है।
         ‌वहाँ एक फलदार पौधा दिखाई दिया बच्चों ने बताया यह 'झमीरा' है। यह संतरे की तरह का एक खट्टा फल है।
झमीरा नामक फल

खेत, तालाब और पहाड़
मंदिर, पहाड़ आदि देखने बाद खेतों में कुछ देर घूमने बाद वापसी की।
हम तीन बजे के लगभग वापस घर पहुंचे। आज की यात्रा छोटी थी लेकिन अच्छी और मनोरंजन रही।


हम भी अच्छे लगते हैं।