रविवार, 25 अक्तूबर 2020

गौमुख यात्रा- माउंट आबू

गौमुख यात्रा- 28.01.2018 रविवार

श्याम सुंदर, मनोज राजोरा, सुरेश कुमार

माउंट आबू एक हिल स्टेशन के रूप में प्रसिद्ध है, लेकिन यहाँ धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल भी बहुत हैं जो मुझे अक्सर अपनी तरफ आकृष्ट करते हैं। इसलिए जैसे ही हमें समय मिलता है हम मित्र घूमने निकल जाते हैं। अरावली पर्वल माला की गोद में बसे माउंट आबू के पर्यटन स्थलों पर जाना वास्तव में बहुत रोचक है और वह रोचकता तब और बढ जाती है जब पर्यटन स्थल घने जंगल में हो। ऐसा ही एक पर्यटन स्थल है गौमुख। 
         माउंट आबू शहर से बाहर ...दिशा में शहर से तीन किमी दूर स्थित है गौमुख।  रविवार विद्यालय अवकाश को हम मित्रों का कोई न कोई भ्रमण हो ही जाता है। मित्र श्यामसुंदर दास, मनोज राजोरा, सुरेश कुमार और मैं गुरप्रीत सिंह। हम लगभग 12:20PM घर से यात्रा को निकले। 
      शहर से बाहर घुमावदार रास्ता, चारों तरफ पहाडियां, घनी हरियाली आदि मनमोहक दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे। हम जैसे -जैसे मंजिल तरफ बढ रहे रास्ता वैसे-वैसे पहाङी पर चढता जा रहा था, ऊंचा होता जा रहा था। रास्ते में फोटो लेने के मजे भी गजब थे। जैसे ही कोई अच्छा दृश्य दिखा सभी उस और हो लेते।
         एक ऊंची पहाङी से गौमुख का रास्ता नीचे को उतरता है। अच्छी सड़क है तो पहाड़ी पर चढने का अहसास नहीं होता और उस पहाड़ी से लगभग पांच सात सौ से अधिक सीढियां उतरने पर गौमुख पहुंचे, हालांकि अधिकांश लोग सीढ़ियों की संख्या सात सौ से अधिक बताते हैं। लेकिन गौमुख जाने का उत्साह इन सीढ़ियों की परवाह कहां करता है। लेकिन गौमुख से वापस सीढियां चढने वालों के चेहरे इन यात्रा की मनाही करते नजर आये। हम उछलते-कूदते, फोटोग्राफी करते कब नीचे उतरे यह पता ही नहीं चला।  

    गौमुख का दृश्य मनमोहक था। चारों तरफ पहाङ, घना जंगल और शांति। कुछ पर्यटक वहाँ पहले से उपस्थित थे।
यहाँ एक पानी का कुण्ड बना है और कुण्ड के समीप एक पहाड़ से निरंतर पानी बहता रहता है। उस पानी के बहाव वाली जगह पर पत्थर का एक गाय का मुँह स्थापित कर रखा है जिसके कारण इसे गौमुख कहते हैं। इसकी विशेषता यही है की इससे वर्ष पर्यंत पानी बहता रहता है और बरसात के समय यह तेज प्रवाह में बहता है।
  गौमुख एक गाय का मुँह है जिससे निरंतर पानी प्रवाहित होता रहता है। इसकी भी एक कथा है।- .....

   गौमुख के पास में स्थित है ऋषि वशिष्ठ का आश्रम। प्राचीन मंदिर है हालांकि इस मंदिर निर्माण के सन् की जानकारी मुझे नहीं मिली। मंदिर में ....की मूर्ति स्थापित है और मंदिर के सामने प्राचीन चम्पा वृक्ष के नीचे ऋषि वशिष्ठ का अग्निकुण्ड स्थापित है।    चंपा वृक्ष जिसकी उत्पत्ति 1395 (लगभग) लिखा है।

     इतिहास की किताबों में यह बहुत बार पढा था कि यहाँ ऋषि वशिष्ठ ने यज्ञ किया था और उससे राजपूत जाति के चार गौत्र उत्पन्न हुये थे। चौहान, परमार, सोलंकी, प्रतिहार। अब अग्नि कुण्ड से चार गौत्र कैसे उत्पन्न हुये यह तो पता नहीं पर वहाँ एक अग्निकुण्ड आज भी स्थापित है। 
यहाँ एक विशाल पट्ट से जो जानकारी प्राप्त हुयी वह निम्न प्रकार है।
ऐतिहासिक अग्निकुण्ड- पूर्वकाल में हैहय वंशीय कार्तवीर्य सहस्त्र बाहू अर्जुन जो बाहुबल के अति अभिमान में जमदग्नि ऋषि का वध करके उसकी कामधेनू का अपहरण कर लिया। तब जमदग्नि ऋषि के पुत्र परशुराम जी ने प्रतिशोध में पृथ्वी को क्षत्रिय विहिन करने का प्रण लिया और हैहय वंशीय क्षत्रियों एवं उनके सहयोगी क्षत्रियों का 29 बार संहार किया करके समस्त राज्य ब्राह्मणों को दे दिया। ब्राह्मण विधा व तपस्या के धनी थे। वे अपनी क्षमाशीलता के कारण अपराधियों को दण्ड नहीं देते थे। अतः सर्वत्र अराजकता व्याप्त हो गयी और शासन व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी। तब श्री वशिष्ठ जी ने पूर्ववर्ती क्षत्रियों से राज्य लेने का आग्रह किया। परंतु यह ब्रह्म संपत्ति थी इसलिए कोई भी क्षत्रिय राजकुमार राज्य लेने को तैयार नहीं हुआ। तब श्री वशिष्ठ जी ने एक विशाल सर्वमेघ यज्ञ किया का आयोजन किया। जिसमें चार देवताओं का आह्वान कर के उनके अंश से मृत संजीवनी विधा द्वारा अत्यंत तेजस्वी, विविध अस्त्रों-शस्त्रों से सुसज्जित चार राजकुमार अग्नि कुण्ड से उत्पन्न किये।
अनल कुण्ड ते उपजे चारों राजकुमार। ऐहि विधि वंश भा, क्षत्र जाति विस्तार।।
विष्णु तेज ते चौहान भया, इंद्र अंश परमार। शिव ते सोलंकी भया, अज ते प्रतिहार।।

     यहाँ स्थित मंदिर के पास कुछ पुरानी मूर्तियों के अवशेष उपेक्षित से पड़े हैं। मंदिर के पुजारी जी ने बताया की यहीं नजदीक में एक संग्रहालय हुआ करता था एक भूस्खलन में वह संग्रहालय ध्वस्त हो गया उसकी शेष मूर्तियाँ इस मंदिर परिसर में रख दी।
     मुझे यह जानकारी बहुत अफसोस हुआ की कैसे प्राचीन मूर्तियाँ उपेक्षित पड़ी हैं‌। इनके पीछे भी कोई इतिहास रहा होगा, किसने वह संग्रहालय यहाँ पर्वतों में स्थापित किया होगा, किस उद्देश्य से किया होगा। संग्रहालय निर्माता के सारे अरमान एक भूस्खलन में खत्म हो गये।
   मेरी बहुत इच्छा थी इस संग्रहालय के विषय में जानने की पर कुछ विशेष जानकारी उपलब्ध न हो सकी।
    हां एक और रोचक बात। मंदिर में मैं और सुरेश जी तस्वीर लेने का प्रयास कर रहे थे तो वहाँ के एक सदस्य ने इसके लिए मना कर दिया।
"यहाँ तस्वीर लेना मना है।"
"क्यों?" सुरेश जी ने पू़छा।
"नहीं, यहाँ कोई तस्वीर नहीं ले सकता।"
"कुछ कारण तो होगा।"
"प्राचीन मंदिरों की तस्वीर नहीं ली जाती। आबू के सभी मंदिरों में तस्वीरें लेना मना है।"
लेकिन तस्वीर न लेने का कारण वह स्पष्ट न कर पाया। मुझे भी हैरानी हुयी की एक तो इस जगह कोई आता नहीं है और कोई आता है तो उसके लिए कोई सुविधा नहीं है और कोई याद के रूप में तस्वीर लेना चाहे तो वह भी मनाही है।
   वैसे हमने मंदिर के नियमों की पालना की और मंदिर के परिसर की एक दो तस्वीरें ली वह भी उनकी अनुमति से, क्योंकि वहाँ मनाही नहीं थी।
      वहाँ एक मंदिर के अतिरिक्त और कुछ विशेष नहीं था। हालांकि एक विशाल पट्ट पर काफी कुछ लिखा हुआ था पर वह कहीं नजर नहीं आया।
   कुछ समय मंदिर में बीताने के पश्चात हम वहाँ से बाहर निकले तो एक और रास्ते का वर्णन मिला।

व्यास आश्रम- गौमुख के पास से एक रास्ता (पगडंडी) और भी निकलता है। घने जंगल और पहाड़ियों के मध्य और कई छोटे-छोटे झरनों के प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण यह रास्ता लगभग छह किलोमीटर दूर गौतम ऋषि के आश्रम तक जाता है। इसी रास्ते पर कुछ दूर चलने पर झरना आता है। वहाँ से थोड़ा सा ऊपर को एक और रास्ता निकलता है जो व्यास ऋषि के आश्रम को जाता है। हमारी मंजिल यही आश्रम था।
       एक पतली सी बेतरतीब पगडंडी और वह भी कई जगह पर गायब सी थी। उसी पर चलने पर बाँस का जंगल आया और वहीं आगे एक छोटा सी गुफा नजर आयी। जहाँ लिखा था -व्यास आश्रम।
   व्यास मुनि यहाँ कब आये, क्यों आये कब तक रहे ऐसे किसी भी प्रश्न का उत्तर उस घने जंगल में देने वाला कोई भी न था। बस मन को एक संतुष्टि थी की हमने व्यास आश्रम देख लिया।
"यही है क्या व्यास आश्रम।"- श्याम जी ने कहा।
" लिखा तो यही है।"- मनोज जी ने उत्तर दिया।
"इसमें क्या खास है?"
  अब क्या खास है और क्या नहीं इस का उत्तर देना संभव न था। एक जिज्ञासा थी इस आश्रम को देखने की वह पूर्ण हो गयी।
    लेकिन एक जिज्ञासा खत्म होती है तो कई और जिज्ञासाएं जन्म ले लेती हैं। एक क्रम निरंतर चलता रहता है। जिस दिन जिज्ञासा खत्म हो गयी तो मनुष्य खत्म है। यही जीवन है। शायद ऐसे ही किसी प्रश्न की तलाश में ऋषि व्यास इस घने जंगल में आये हों।
      वहाँ की कुछ तस्वीरें लेने के पश्चात हम वापस चल दिये।
      सूर्य पहाड़ों की ओट में जा रहा था और हमें घर भी पहुंचना था।  सीढियां उतरते वक्त जितना उत्साह था वह सीढियां चढते वक्त खत्म हो गया था। शरीर थक गया था। धीरे-धीरे एक-एक सीढी पार करते हये हम वापस पहुंचे।

    इस यात्रा के दौरान मुझे मंदिर पट्ट से एक और जानकारी प्राप्त हुयी वह बहुत रोचक है। वह जानकारी है आबू के निर्माण की‌।
आप भी पढें रोचक लगेगी।

अर्बूदाचल की उत्पति- पूर्वकाल में गौतम ऋषि के पास रहकर उत्तंक विद्या अध्ययन करते थे। अध्ययन पूर्ण होने पर उत्तंक ने गौतम ऋषि से गुरुदक्षिणा मांगने का निवेदन किया, तो ऋषि ने कुछ नहीं मांगा, परंतु अत्यंत आग्रह करने पर ऋषि पत्नी अहिल्या ने कहा कि अयोध्या के राजा सौदास की रानी के दिव्य कुण्डल लाकर दो। उत्तंक ऋषि अयोध्या पहुंचे। राजा सौदास एवं रानी मदयंती ने स्वागत-सत्कार के उपरांत वे दिव्य कुण्डल उत्तंक ऋषि को दे दिये एवं सावधान किया की इन कुण्डलों को पाने के लिए देवता, गन्धर्व व नाग लालायित हैं। अत: ध्यान रखना कि कोई आपसे छीन न ले। उत्तंक शन्नै: शन्नै: मार्ग से चले जा रहे थे। मार्ग में संध्या होने पर उन्होंने कुण्डल मर्गचर्म पर रखे एवं संध्योपासना करने लगे। जब उत्तंक ध्यानमग्न हो गये तब 'तक्षक' नाग ने चुपके से वे कुण्डल उठा लिये और पाताल को चलता बना। संध्योपासना के पश्चात मृगचर्म पर कुण्डल न देखकर उत्तंक ने ध्यान द्वारा यह जानकारी की कि तक्षक नाग कुण्डलों को लेकर पाताल में गया है, पास में बने हुये उस नाग बिल को अपने हाथ में धारित ब्रह्मदण्ड से खोदना आरम्भ कर दिया। पैंतीस दिन व्यतीत होने पर भी उत्तंक को न तो तक्षक नाग का पता लगा और न ही कुण्डल मिल पाये।  अचानक वहाँ देवराज इन्द्र आये और उत्तंक से पृथ्वी खोदने का कारण पूछा। उत्तंक ने सर्ववृतांत सुनाया तब इन्द्र ने अपने वज्र को ब्रह्मदण्ड से संयुक्त कर दिया, जिससे प्रथम प्रहार में ही उस स्थान पर पाताल पर्यंत पृथ्वी में विशाल छेद बन गया। उसी मार्ग से महर्षि उत्तंक ने पाताल में प्रवेश किया एवं अग्निदेव की सहायता से तक्षक नाग के पास से वे दिव्य कुण्डल पुन: प्राप्त किये और अपनी गुरू माता को दक्षिणा में कुण्डल प्रदान किये।
    इस प्रकार इन्द्र के वज्र प्रहार द्वारा बने पाताल पर्यन्त विशाल खड्डे में एक बार महर्षि श्री वशिष्ठ की कामधेनु नन्दिनी गिर गयी। वशिष्ठ जी नन्दिनी को खोजते हुये उस गहरे खण्डे के पास पहुंचे और नन्दिनी को खड्डे में गिरा देखकर सोचा कि उस गहरी खाई में से नन्दिनी को कैसे बाहर निकाला जाये?
     वशिष्ठ जी ने ध्यानपूर्वक सरस्वती जी का स्मरण किया और खड्डा जल से भर देने पर नन्दिनी तैर कर स्वयं बाहर आ गयी। तथापि वशिष्ठ जी ने सोचा कि ऐसी घटना की पुनरावृत्ति न हो, अतः इस खाई को पूर देना चाहिये। परंतु इतने गहरे और विशाल खड्डे को समतल बनाने के लिए किसी बहुत बड़े पर्वत की आवश्यकता थी। इस मरुप्रदेश में तब इतनी बड़ी कोई पर्वत श्रेणी नहीं थी। अत: वशिष्ठ मुनि पर्वतराज हिमालय के पास गये। हिमालय ने उनका बड़ा स्वागत किया और आगमन का कारण पूछा। तब वशिष्ठ जी ने उस पाताल व्यापी खाई और नन्दिनी के खाई में गिरने  संबंधी सर्व वृतांत सुनाया तथा हिमालय से आग्रह किया कि आप किसी पर्वत को भेजकर उस खाई को समतल करवा दे। हिमालय ने विचार कर कहा-"हे महर्षि, इन्द्र ने सभी पर्वतों के पंख काट दिये हैं, तो कोई पर्वत उस स्थान पर कैसे पहुंचाया जाये, उसका उपाय सोचना चाहिये।
   महर्षि वशिष्ठ ने कहा-"हे हिमालय, आपके पुत्र नन्दिवर्धन ना पुत्र अर्बूदनाग है, वह चाहे तो किसी भी पर्वत को धारण करके आकाश मार्ग से ले जा सकता है।
  तब हिमालय ने अपने पुत्र नन्दिवर्धन को आज्ञा दी कि जाओ वशिष्ठ आश्रम के पास गहरी खाई है, उसे भर दो। नन्दिवर्धन ने महर्षि वशिष्ठ से कहा-"हे महर्षि, वह प्रदेश तो रुक्ष है। वहाँ न तो कोई नदी है, न तीर्थ। केवल पालाश और खदिर जैसे वृक्षों से परिपूरित है। मैं वहाँ कैसे रह सकता हूँ।
  महर्षि वशिष्ठ ने समझाया- "हे नन्दिवर्धन, मैं अपनी तपस्या द्वारा भगवान शिव को वहाँ ले जाऊंगा एवं तैतींस कोटि देवी-देवता, अट्ठयासी हजार ऋषि-महर्षि तथा छत्तीस भार वनस्पति सदैव तुम्हारे ऊपर उपस्थित रहेंगे। अतः तुम निश्य होकर चलो।"
  जब पर्वत नन्दिवर्धन अपने मित्र अर्बूद नाग पर सवार होने लगे, तो अर्बूदनाग ने कहा-"मित्र नन्दिवर्धन, यदि वहाँ पर मेरा नाम ही मुख्य रहे तो मैं चलता हूँ। ये ही मेरी प्रार्थना है।"
  नन्दिवर्धन ने हर्षपूर्वक स्वीकृति दे दी। तत्पश्चात् वशिष्ठ जी के साथ-साथ नन्दीवर्धन पर्वत एव अर्बूदानाग वशिष्ठ आश्रम पहुंचे । अर्बूदानाग ने उस गहरे खड्डे में पर्वत नन्दिवर्धन को स्थापित कर दिया जिससे वह स्थान सुरक्षित हो गया। तभी से यह पर्वत 'अर्बूदाचंल' के  नाम से विख्यात है जो कालंतर में धीरे-धीरे अपभ्रंश रूप 'आबू' में परिवर्तित हो गया।

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