मंगलवार, 20 जुलाई 2021

365 झरोखों का हवामहल

365 झरोखों का हवामहल

राजस्थान की राजधानी जयपुर अपनी ऐतिहासिक और स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध है। अपनी स्थापना आमेर से लेकर वर्तमान जयपुर शहर तक इसने विविध रुपों में स्वयं का श्रृंगार किया है। कभी आमेर था तो कभी गुलाबी नगरी तो कभी जयपुर।
      जयपुर अपनी प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना समेटे हुये है। यहाँ के विभिन्न महल और मंदिर पर्यटकों को सहज ही आकृष्ट करते हैं।
    जयपुर शहर के हृदय स्थल में स्थापित है हवामहल। यह अपने नाम के पूर्णतः अनुरूप है। 

हवामहल- जयपुर
 हवामहल- जयपुर
दिनांक 20.07.2021 को मैं अपनी अर्द्धांगिनी कर्मजीत कौर के साथ हवामहल घूमने का विचार बनाया और दोपहर को हम लगभग 12:30 PM हवामहल पहुंचे।
   मैं पिछले दो दिन से जयपुर ही था। वैसे हवामहल का यह मेरा द्वितीय भ्रमण है इस से पूर्व मित्र अंकित के साथ यहाँ आ चुका हूँ।
  हम दोनों ने  टिकट खिड़की से सौ रुपये में दो टिकट ली। और हवामहल में प्रवेश किया।
  
       अब कुछ हवामहल के इतिहास पर दृश्य डाल लेते हैं।  प्रवेश द्वार पर एक शिलापट्ट था जिस पर निम्नांकित जानकारी दी गयी थी।

'बड़ी चौपड़ स्थित हवामहल का निर्माण जयपुर के महाराजा सवाई प्रताप सिंह(1778-1803) ने 1799 ई. में करवाया था। इसके वास्तुकार उस्ताद लालचंद थे।
    इस दो चौक की पांच मंजिली इमारत के प्रथम तल पर शदर ऋतु के उत्सव मनाये जाते थे। दूसरी मंजिल जड़ाई के काम से सजी है, इसलिए इसे रतन मंदिर कहते हैं। तीसरी मंजिल विचित्र महल में महाराजा अपने आराध्य श्री कृष्ण की पूजा/आराधना करते हैं। चौथी मंजिल प्रकाश मंदिर है और पांचवी हवा मंदिर जिसके कारण यह भवन हवामहल कहलाता है। 

 यदि सिरहड्योडी बाजार में खड़े होकर देखे तो हवामहल की आकृति श्री कृष्ण के मुकुट के समान दिखती है, जैसा कि महाराज सवाई प्रतापसिंह इसे बनवाना चाहते थे।
  यह सब जानकारी हवामहल के अंदर प्रविष्ट होते समय एक शिलापट्ट पर अंकित की गयी है।
      हमने यहाँ से अंदर प्रवेश किया वह प्रथम तल था। यहाँ हमने कुछ फोटोग्राफी की। हवामहल की यह भी एक विशेषता है की इसका मुख्य डिजाइन जैसा इसके अंदर की तरफ से दिखाई देता है, श्री कृष्ण के मुकुट जैसा वैसा ही यह बाहर से भी दिखाई देता है। हालांकि अंदर से मुकुट का आकार ऊपर की की तीन मंजिलों की निर्मित है वहीं बाहर की तरफ से देखे तो यह पंचमंजिला भवन श्री कृष्ण के मुकुट की तरह बहुत ही आकर्षित दिखाई देता है।
       हवामहल अंदर से इतना विशाल है और इसमें इतने भवन/कक्ष निर्मित हैं की इसे समझना थोड़ा सा मुश्किल हो जाता है। वैसे भी राजा- महाराजाओं द्वारा निर्मित महल इस तरह से निर्मित होते थे जिनकी भूलभूलैया में मनुष्य उलझ जाता है।
    हवामहल में भी आप एक तरफ से जब द्वितीय मंजिल में प्रवेश करोगे तो आप को अंदर जाने के पश्चात यह अनुभव होगा की यह महल कितना विशाल है।
मैं अक्सर ऐसे स्थानों पर घूमते वक्त यही सोचता हूँ की उस समय लोग यहाँ जैसे रहते होंगे, क्या वे भी इन्हीं भूलभूलैया में उलझ जाते होंगे।
     हालांकि हम दोनों तो इस भूलभूलैया में चक्कर खाते रहे थे। इस चक्कर में यह भी पता नहीं चला की‌ कब कौनसी मंजिल पर हम पहुँच गये। क्योंकि रास्ते इतने घुमावदार हैं कुछ पता ही नहीं चलता।
  यहाँ एक कक्ष में महाराजा प्रतापसिंह की विशाल प्रतिमा है। जानकारी अनुसार यह प्रताप सिंह का निजी कक्ष है।
    हां, एक जगह शानदार शीशों‌ की जडा़ई अवश्य दिखती है, शायद वही द्वितीय तल/ रतन मंदिर (भवन) रहा होगा।
जहाँ एक तरफ झरोखों‌ के अंदर शानदार रंग-बिरंगे काँच आकृष्ट करते हैं, वहीं वह जगह और स्तम्भ भी फोटोग्राफी की दृष्टि से हमें अच्छे लगे।
   कुछ देर इधर उधर घूमने के पश्चात हम एक बार फिर फोटोग्राफी की और अगले तल की ओर बढ चले। जब आगे पहुंचे तो कुछ लोग सबसे ऊपर वाली मंजिल पर खड़े दृश्यावलोकन करते नजर आये। हमारी भी इच्छा हुयी की ऊपर चलते हैं वहाँ से जयपुर शहर का खूबसूरत नजारा देखने को मिलेगा। लेकिन उन्होंने ऊपर जाने की कहीं सीढियाँ ही नजर नहीं आयी। हालांकि मैं एक बार पहले भी यहाँ घूम चुका हूँ। हम कुछ आगे बढे तो आगे एक जगह सीढियां नजर आयी पर वे सीढियां हमें वापस नीचे ले जा रही थी।
   हम वहाँ से वापस लौटे तो सामने एक तीर का निशान नजर आया, हमने वहाँ से एक घुमावदार रास्ता पकड़ा लेकिन वह तो हमें एक अन्य गुबंद में ले गया। उसी गुंबद से ऊपर की मंजिल के लोग तो नजर आ रहे थे पर वहाँ जाने का रास्ता कहीं नहीं दिखा। हम पुनः नीचे आये, शायद एक मंजिल नीचे उतर लेकिन यहाँ से भी कोई रास्ता उस मंजिल तक नहीं जा रहा था। अजीब बात है।
   हम पुनः ऊपर आये। वहाँ से गौर से देखा, एक रास्ता तो वही घूम कर गुबंद तक जा रहा था। वहाँ से आगे निकले तो वही नीचे जाने की सीढियाँ नजर आयी।
"यह ऊपर जाने का रास्ता कहां गायब हो गया?"-मैंने कहा।
" पता नहीं, लोग तो ऊपर गये हैं तो यहीं नही रास्ता भी होगा।"- कर्मजीत ने उत्तर दिया।
     हम एक बार फिर उसी जगह खड़े हो गये जहाँ ठीक हमारे ऊपर अंतिम मंजिल पर लोग खडे़ थे। तभी मेरी दृष्टि मेरी बायीं तरफ गयी तो वहाँ सीढियां नजर आयी। वह रास्ता/सीढियां इतनी संकरी थी की एक समय एक ही आदमी ऊपर या नीचे आ - जा सकता था। अगर कोई भारी शरीर का आदमी हो तो इसके लिए यह और भी मुश्किल था।
     अक्सर किलों और महलों में इस तरह के रास्ते इसलिए संकरे रखे जाते थे कि अगर कहीं आक्रमण हो तो एक साथ ज्यादा शत्रु सैनिक आगे न बढ सकें, हालांकि यहाँ यह कारण तर्कसंगत न था।
    हम ऊपर पहुंचे। यहाँ से जयपुर शहर का दृश्य बहुत रोचक नजर आता है। सामने ही  सवाई जयसिंह द्वारा सन् 1924 में निर्मित 'जंतर- मंतर' नजर आता है। ईसरलाट और सीटी पैलेस भी यहाँ से दिखते हैं, हालांकि हवामहल सीटी पैलेस का ही एक भाग माना जाता है। यहाँ से जयपुर की पहाडियां और उन पर निर्मित गढ भी नजर आते हैं।
यह प्राचीन भारत की विज्ञान का अद्भुत नमूना है।
   कुछ देर हमने यहाँ से जयपुर शहर को देखा, फोटोग्राफी की। और यही से आगे की योजना 'जंतर-मंतर' की बना कर नीचे उतर गये।
      यहाँ से वापसी का रास्ता भी बहुत हैरत वाला है। एक लंबा और पतला रास्ता जो पर्यटकों को मुख्य सड़क पर लाकर छोड़ता है। इसी रास्ते में हवामहल के भवन में छोटा सा प्राचीन मूर्तिया को संग्रहालय भी स्थित है।
  यहाँ पत्थर से निर्मित 16-17 वीं शताब्दी की कुछ मूर्तियां हैं। हालांकि मूर्तियों पर उनका नाम और समय तो अंकित है पर यह कहां की‌ मूर्तियां है, किसने बनवायी कहां से मिली ऐसा कोई वर्णन नहीं मिला। हालांकि मेरी जिज्ञासा यही रहती है कि इन मूर्तियों को कहां से प्राप्त किया गया। कुछ पूर्ण तो कुछ खण्डित मूर्तियों का यह छोटा सा संग्रहालय भी दर्शनीय है।
  हवामहल में झरोखे निर्माण महाराजा प्रताप सिंह ने इस दृष्टि से रखवाये थे ताकि महल की स्त्रियाँ राजमार्ग से गुजरने वाली झाँकियां आदि को देख सके। द्वितीय 365 झरोखों के कारण यहाँ ठण्डी हवा निरंतर बहती रहे। महाराजा प्रतापसिंह श्री कृष्ण भक्त थे इसलिए इसका आकार कृष्ण मुकुट की तरह रखा गया है। 

   यहाँ यह विशेष वर्णन करने योग्य है की इंटरनेट पर जब हवामहल सर्च करते हैं तो वहाँ हवामहल के झरोखों‌ की संख्या 953 मिलती है, वहीं हवामहल में लगे शिलापट्ट पर झरोखों की संख्या 365 अंकित है।
     यहाँ से हम मुख्य सड़क पर आये। हवामहल का जो श्री कृष्ण मुकुट का आकार दिखाई देता वह इसके पृष्ठीय पक्ष से ही दिखाई देता है जो मुख्य सड़क की ओर है। यहाँ एक जगह फोटोग्राफी के लिए निर्धारित की गयी है, हालांकि सड़क की दूसरी तरफ से ही तस्वीर अच्छी आती है।
   कुछ देर यहाँ फोटोग्राफी की और बढ चले चाय की दुकान की तरफ। थकान के बाद एक-एक कप चाय तो बनती है।
  एक और शिलापट्ट था जिस पर हवामहल की कुछ जानकारी अंकित थी।
      हवामहल का निर्माण महाराजा सवाई प्रताप सिंह द्वारा वर्ष 1799 ई. में  वास्तुकार लालचंद उस्ता की देखरेख में करवाया गया। महाराजा द्वारा हवामहल को अपने  इष्टदेव श्री कृष्ण के मुकुट के अनुरूप निर्मित करवाया गया। पिरामिड की आकृति में बने इस 87 फीट ऊँचे पाँच मंजिला भवन में छोटी-छोटी 365 झिड़कियां बनी है तथा इन मंजिलों को शरद मंदिर, रतन मंदिर, विचित्र मंदिर, प्रकाश मंदिर एवं हवा मंदिर के नाम से जाना जाता है।
     हवामहल के मुख्य द्वारा को आनंदपोलि तथा दूसरे द्वार को चन्द्रपोलि के नाम से जाना जाता है। अंदरुनी चौक में एक होज है जिसमें फव्वारे लगे हैं। इसके दाहिनी और महाराजा का निजी कक्ष प्रताप मंदिर तथा बायीं और भोजनशाला स्थित है। हवामहल से सीटी पैलेस जाने का मार्ग था जहाँ से राजपरिवार की औरतें तीज-गणगौर देखने  हवामहल आती थी।

   हवामहल के सामने ही सीटी पैलेस और जंतर-मंतर है। वर्तमान सीटी पैलेस राजघराने का निवास था, वहीं से राजपरिवार की औरतें हवामहल में झांकी आदि देखने आती थी।
हमने हवामहल के पश्चात जंतर-मंतर जाने का विचार बनाया।
   भारत में सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित कुल पांच जंतर-मंतर है। जिनमें से एक जयपुर में स्थित है। इसका निर्माण 1824-34 के मध्य हुआ है। जंतर-मंतर खगोलीय वैद्यशाला है। और यह प्राचीन भारत की विज्ञान का उत्कृष्ट प्रदर्शन भी है।
प्राचीन खगोलीय यंत्रों और जटिल गणितीय संरचनाओं के माध्यम से ज्योतिषीय और खगोलीय घटनाओं का विश्लेषण और सटीक भविष्यवाणी करने के लिए जंतर-मंतर दुनिया भर में प्रसिद्ध है।
   

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