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रविवार, 22 दिसंबर 2019

रणथम्भौर की यात्रा

रणथम्भौर दुर्ग की अविस्मरणीय यात्रा

  दिसंबर 2019 में राजस्थान के सवाईमाधोपुर के प्रसिद्ध अभयारण्य में स्थित रणथम्भौर दुर्ग की यात्रा करने का अवसर मिला। यह यात्रा मेरे लिए बहुत रोचक रही।
विद्यालय में शिक्षक सम्मेलन का दो दिवसीय अवकाश था और एक रविवार भी साथ में शामिल था। तीन दिन में कार्यस्थल (माउंट आबू) से घर (बगीचा, श्रीगंगानगर) आवागमन संभव नहीं। इसलिए जयपुर छोटी बहन के पास जाने का विचार था।

हुकम चंद नामा जी हमारे विद्यालय के वाणिज्य के एकमात्र व्याख्याता है। वे सवाईमाधोपुर के मूलनिवासी है। उन्होंने प्रस्ताव रखा की भाई मेरे साथ सवाईमाधोपुर चलो, वहाँ घूम आना, फिर जयपुर आ जा‌ना। प्रस्ताव मुझे भी अच्छा लगा, साथ में जयपुर भी जाना हो जायेगा।

 मैं और हुकम जी 05.12.2019 को आबू रोड़ से 3:00 PM ट्रेन से रात ग्यारह बजे जयपुर पहुंचे और आगे ट्रेन से सवाईमाधोपुर और रात को तीन बजे घर पहुंचे।

06.12.2019 शुक्रवार लगभग 11 बजे हम विश्व प्रसिद्ध रणथम्भौर अभयारण्य पहुंचे। यहाँ दो दर्शनीय स्थल है। एक तो दूर-दूर तक विस्तृत जंगल और दूसरा राणा हम्मीर का किला। हम यही किला देखने गये थे। अभयारण्य फिर कभी देखेंगे।

लगभग चार किलोमीटर घने जंगल में सड़क यात्रा करने के पश्चात गंतव्य पर पहुंचे। इस किले की एक बड़ी विशेषता यह है की यह दूर से दिखाई नहीं देता। हालांकि यह अन्य किलों की तरह पहाड़ी पर स्थित है।
दुर्ग का बाहरी दृश्य
इसीलिए अबुल फजल ने इस दुर्ग के विषय में लिखा था।
 "अन्य सब दुर्ग नंगे हैं जबकि यह दुर्ग बख्तरबंद है।" इसका कारण यह है की चारों तरफ पहाड़ियों से घिरे होने के कारण यह दुर्ग दूर से नजर नहीं आता। यह विन्ध्याचल की पहाड़ियों के मध्य स्थित है।

 रन और थम्भ नाम की पहाडियों के बीच 12 कि.मी. की की परिधि में बना यह दुर्ग के तीनों और पहाडों में प्राकृतिक खाई बनी है जो इस किले की सुरक्षा को मजबूत बनाती है। मैं कल्पना कर सिहर उठता हूँ कैसे आक्रमणकारी इन गहरी खाईयों को पार करके इस दुर्ग में घुसे होंगे।

जब किले के द्वार पर पहुंचे तो एक अजीब सा अहसास अंदर तक समाता चला गया। एक योद्धा का किला, अपने समय की गौरव गाथा सुनाता किला। और आज बेबस उदास सा, अपने हालात पर आँसू बहाता किला। काफी ऊंचाई पर स्थित इस किले को देखने के लिए गरदन ऊंची उठानी पड़ती है।

        किले में प्रवेश करने पर यहाँ लगा एक शिलापट रणथम्भौर दुर्ग के स्थापना, शासक आदि की संक्षिप्त जानकारी प्रदान करता है। यह संक्षिप्त जानकारी भी काफी उपयोगी है। 
पुरातत्व विभाग द्वारा लगाया गया शिलापट
'रणथम्भौर दुर्ग भारत के सर्वाधिक मजबूत दुर्गों में से एक है जिसने शाकम्भरी के चाहमान साम्राज्य को शक्ति प्रदान करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की। यह कहा जाता है की इस दुर्ग का निर्माण महाराजा जयंत ने पांचवीं शती ई. में‌ किया था। बाहरवी शती पृथ्वीराज चौहान आने तक यहाँ यादवों ने शासन किया। हम्मीर देव (सन् 1283-1301ई.) रणथम्भौर का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था, जिसने कला और साहित्य को प्रश्रय दिया एवं सन् 1301 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का वीरतापूर्ण सामना किया। इसके बाद दुर्ग पर दिल्ली के सुल्तानों का अधिकार हो गया। बाद में यह राणा सांगा (1509-1527 ई.) तथा तत्पश्चात मुगलों के नियंत्रण में रहा।
        यह दुर्ग रणथम्भौर व्याघ्र अभयारण्य के ठीक मध्य स्थित है। विशाल रक्षा प्राचीर से सुदृढ़ इस दुर्ग में सात दरवाजे- नवलखा पोल, हथिया पोल, गणेश पोल, अंधेरी पोल, सतपोल, सूरज पोल एवं दिल्ली पोल है।
       दुर्ग के अंदर स्थित महत्वपूर्ण स्मारकों में - हम्मीर महल, रानी महल, हम्मीर बड़ी कचहरी, छोटी कचहरी, बादल महल, बत्तीस खम्भा छतरी, झंवरा-भंवरा(अन्न भण्डार),मस्जिद एवं हिन्दू मंदिरों के अतिरिक्त एक दिगम्बर जैन मन्दिर तथा एक दरगाह स्थित है। यहाँ स्थित गणेश मंदिर पर्यटकों के सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र है।'


       ऐतिहासिक, धार्मिक आदि जगहों के साथ कुछ न कुछ किंवदंतियां जुड़ ही जाती हैं। इनमें कितना सत्य है और कितना असत्य यह तय करना थोड़ा मुश्किल अवश्य होता है लेकिन इनमें जो रोचकता होती है वह रोमांचित अवश्य कर देती है। ऐसी ही एक किंवदंती यहाँ एक दरवाजे के पास चट्टान पर 'चिह्नित निशानों' के सम्बन्ध में भी प्रचलित है।
        दरवाजे के पास से किले की दीवार की ऊंचाई बहुत ज्यादा है। वहीं एक चट्टान पर कुछ निशान हैं देखने मात्र से वे निशान घोड़े के खुर के समान नजर अवश्य आते हैं। ऐसा माना जाता है की एक बार युद्ध के दौरान राणा हम्मीर ने अपने घोड़े को यहाँ से छलांग लगवा दी थी। और घोड़ा यहीं से काफी ऊंची दीवार पर चढ गया था। ये निशान उसी दौरान के हैं।
अब इस कहानी में सत्य और असत्य को खोजना जरा मुश्किल है पर उस दीवार को देखकर जो रोमांच होता है वह सत्य है।
चट्टान पर चिह्नित निशान
        इस के दुर्ग के सात दरवाजे हैं और उनकी एक बड़ी विशेषता ये है की ये सब 90 डिग्री के कोण पर हैं। किसी भी दरवाजे के आगे ज्यादा जगह नहीं है, यह सुरक्षा की दृष्टि से उत्तम उपाय है। क्योंकि आक्रमणकारी इससे दरवाजे को क्षति नहीं पहुंचा सकते।
दुर्ग का एक दरवाजा




















दुर्ग में आगे जाने पर एक जगह पूरे दुर्ग का एक शिलापट पर चित्र अंकित है। वहाँ से दुर्ग को समझना आसान हो जाता है।
     राणा हम्मीर द्वारा अपनी पिता जैत्र मल की स्मृति में निर्मित 32 स्तम्भ की छतरी दर्शनीय है। और इसी छतरी के नीचे एक शिवलिंग आकर्षण का केन्द्र है।
     इसी छतरी से थोड़ी सी दूरी पर एक अर्द्ध निर्मित छतरी भी नजर आती है। जिसको अब पेड़-पौधों और लताओं ने अपने आगोश में छिपा लिया।
32 स्तम्भ छतरी
अर्द्ध निर्मित छतरी

    अपने समय का मजबूत दुर्ग आज के अधिकांश भाग खण्डित हो चुके हैं। समय की मार और प्रशासन की लापरवाही एक दुर्ग के अंग-अंग पर अंकित है। कहीं किसी महल का नाम नहीं, कहीं कोई किले का महत्व दर्शाने वाली जानकारी दर्ज नहीं, इतनी उपेक्षा क्यों?

      रणथम्भौर दुर्ग किसी शासक के कारण चर्चित रहा है तो वह है राणा हम्मीर। सन् 1282-1301तक यहां हमीर का शासन रहा । हम्मीरदेव का 19 वर्षो का शासन इस दुर्ग का स्वर्णिम युग था। हम्मीर देव चौहान ने 17 युद्ध किए जिनमे 13 युद्धों में उसे विजय प्राप्त हुई। राणा हम्मीर और अलाउद्दीन खिलजी का सन् 1301का वह युद्ध जिसमें हम्मीर को पराजय का सामना करना पड़ा और इसी के साथ इस दुर्ग का स्वरुप भी बदल गया।
लेकिन राणा हम्मीर की शौर्यगाथाएं आज भी जीवत है। दुर्ग के कण-कण से लेकर किंवदंतियों से गुजरती हुयी ये गाथाएं इतिहास के पन्नों पर अमिट है।

       दुर्ग में एक प्रसिद्ध त्रिनेत्र गणेश मंदिर है और वर्तमान में इस दुर्ग का महत्व इसी वजह से ही है, अधिकांश लोग गणेश दर्शानार्थ ही यहाँ आते हैं। गणेश जी आधी मूर्ति है। इसके पीछे भी एक रोचक किवंदती है की त्रिनेत्र गणेश जी मूर्ति जमीन से प्रकट हुयी थी।

      गणेश मंदिर के प्रागण में घूमते लंगूर भी दर्शकों को आकृष्ट भी करते हैं और हल्का सा परेशान भी।
मंदिर परिसर में
     मंदिर के प्रांगण में खड़े होकर देखे तो यहाँ से आगे की किले का परकोटा दिखाई देता है लेकिन मित्र हुकुम जी के अनुसार वहाँ अकेले में जाना खतरनाक हो सकता है। आगे पूरा जंगल था, ध्वस्त दीवारें ही दिखाई देती थी। मेरी इच्छा होती है की उन जगहों को भी देखा जाये की आखिर वहाँ क्या था? लेकिन हर इच्छा पूर्ण कहां होती थी।

         मंदिर का रास्ता किले के परकोटे के साथ-साथ है। यहाँ से वापस निकले तो रास्ते में कुछ मुस्लिम धर्म के मस्जिद के अवशेष दिखाई दिये। वे भी अधिकांश खण्डित हो चुके है ये शायद उस समय के दरगाह-मस्जिद आदि रहे होंगे जब यहाँ मुस्लिम शासकों ने शासन किया था।

        इसके पास ही एक तालाब है जिसे पदम तालाब कहा जाता है। इस तालाब के किनारे बने झरोखे वास्तव में अदभुत है, उस समय के परिश्रमी लोगों की कला के प्रतीक हैं। झरोखे से थोड़ा आगे एक छोटा सा मकान है जिससे कुछ सीढियां नीचे तालाब में उतरती हैं। कभी यहाँ भी महफिले गुलजार रही होंगी, कभी यहाँ भी खुशियाँ खेलती होंगी, कभी यहाँ भी राजा-रानी ने आनंद लिये होंगे, लेकिन अब तालाब कचरे से भरा हुआ है।
रास्ते से थोड़ा अलग हटकर एक छोटा सा काली माता का मंदिर भी है। वहाँ से जंगल के मध्य से होते हुए हम एक और मंदिर तक पहुंचे। वह एक जैन मंदिर था। जैन मंदिर पुनः मुख्य मार्ग पर पहुंचे यहा से एक और रास्ता निकलता है। एक बड़ी सी झील के साथ-साथ हम आगे बढे तो यहाँ एक बड़ी दरगाह नजर आयी। यह दरगाह मुगल शासकों के इस दुर्ग पर आधिपत्य की याद दिलाती है। इस दरगाह पर छोटा सा शिलापट लगा था जिस पर लिखा था- "दरगाह काजी पीरशाह सदरूद्दीन"

        यहाँ पर एक विशाल दरवाजा है लेकिन समय के साथ खण्डहर हो चुका है। इस दरवाजे से आगे काफी महल हैं जो मुझे काफी आकर्षक लगे। शायद ये महल मंत्री वर्ग के रहे होंगे। झील के पास ये महल, हम्मीर महल से हालांकि कुछ दूर अवश्य स्थित है पर यहाँ से जंगल और दूर स्थित एक अन्य झील का आकर्षक दृश्य नजर आता है।

     हमसे पहले भी कुछ लोग वहाँ घूम रहे थे। वैसे किले संरक्षकों की तरफ से वहाँ न तो कोई सूचना पट था न ही कोई मार्गदर्शक। अपनी इच्छा से आप वहाँ स्वतंत्रता से घूम सकते हैं लेकिन जंगल के जानवरों का एक अदृश्य डर भी साथ रहता है।

         पहले महल में हमें कुछ विशेष न लगा लेकिन उससे थोड़ा सा आगे एक और महल था जिसकी मरम्मत का कार्य चल रहा था। वहाँ पड़ा सामान देखकर हमने यह अंदाजा लगाया था। हालांकि यह महल भी क्षतिग्रस्त था लेकिन फिर भी कुछ हद तक दर्शनीय है। हम इसकी छत पर पहुंचे। इसकी छत से दूर तक का नजारा किया जा सकता है।
क्षतिग्रस्त होने का दर्द
     छत से एक और मकान नजर आया। वह एक यहाँ से काफी दूर एक पहाड़ी पर स्थित था। वहाँ जाना संभव न था।

     यहाँ काफी समय तक घूमने के पश्चात हम वापस चल दिये। रास्ते में एक 'दुल्हा महल' नजर आया। एक मात्र यही महल था जिस पर एक छोटा सा शिलापट लगा था और हमारी दृष्टि में एक मात्र यही महल था जिसे बाहर से देखकर हम संतुष्ट हो गये।

      वर्तमान में रणथम्भौर दुर्ग को 'राजस्थान के पर्वतीय दुर्ग' श्रृंखला नामांकन के तहत विश्व की सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक धरोहर के संरक्षणार्थ कन्वेंशन द्वारा विश्व दाय सूची में सम्मिलित किया गया है

        रणथम्भौर दुर्ग का यह सफर हमारे लिए यादगार रहेगा। विशाल जंगल के मध्य चट्टानों के उपर स्थित यह दुर्ग वास्तव में अदभुत है लेकिन समय और प्रशासन की मार इस दुर्ग को खत्म कर रही है।

     फिर भी यहाँ देखने से ज्यादा महसूस करने लायक बहुत कुछ है। किसी भी धरोहर को देखने अए ज्यादा महत्व उसको महसूस करने में है। जब आप उस स्थल, उसकी कहानियों को अपने अंदर अनुभव करते हो तो आप स्वयं को उस युग में उपस्थित पाते हो।



रविवार, 10 मार्च 2019

अगाई माता- ओरिया, माउंट आबू

रविवार का दिन अवकाश का दिन होता है। ये दिन या तो घर की साफ- सफाई में बीतता है या फिर कहीं घूमने में। रविवार 3.03.2019 को मैं और साथी मनोज कुमार भी घूमने निकले।
माउंट आबू का एक गांव है 'ओरिया'। वहाँ के विद्यालय में मनोज जी शिक्षक हैं। विद्यालय बच्चों का एक छोटा सा टूर बना घूमने का तो हमें भी बुला लिया। हमारे बाकी शिक्षक मित्र घर गये हुए थे। हम दोनों खाली थे, तो ओरिया चले गये।


            हम लगभग 11 AM ओरिया पहुंचे। कुछ समय बाद बच्चे भी आ गये। वे संख्या में आठ थे और दो हम, कुल दस।'
                 'गुरुशिखर खगोल भौतिक विज्ञान वैद्यशाला' के सामने से होता हुआ एक रास्‍ता जाता है 'अगाई माता मंदिर'। हमारा आज का कार्यक्रम भी इसी मंदिर का था। जंगल और पहाड़ियों के बीच से निकलता कच्चा-पक्का, अनगढ रास्ता कई छोटे-बड़े घूमाव के बाद हमें मंदिर ले गया।
जंगल का रास्ता
रास्ते का सफर हाल ज्यादा नहीं है, लगभग तीस-चालीस मिनट का सफर होगा, लेकिन रास्ते की हल्की-हल्की चढाई अवश्य परेशान करती है। जंगल के अंदर झाड़ियों के बीच से कुछ पगडंडियां सी निकलती दिखाई देती हैं, मैं जिन्हें देखकर अक्सर सोचता रहता हूँ के छोटे-छोटे रास्ते कौन बनाता है। तब एक बच्चे ने समाधान किया "सर, रास्ते भालू बनाते हैं। भालू अक्सर यहाँ घूमते हैं। वे इन रास्तों से जंगल में चले जाते हैं।"
                        रास्ते में एक जगह जमीन के अंदर एक गड्डा दिखाई दिया तो बच्चों ने बताया की भालू 'चिंटी, मकोड़े' आदि के बिल को खोदकर उ‌नको खा जाता है। यह किसी चिंटी आदि का बिल होगा जिसे भालू ने खोदा है।
भालू की करामात


                  बच्चों का साथ तो रास्ते को और भी मनोरंजन बना देता है, बच्चे स्कूल की चर्चा के साथ-साथ एक-दूसरे की शिकायतें भी करते चलते हैं। कुछ बच्चे एक दूसरे के किस्से भी सूना देते हैं।
एक पहाड़ी पर बना 'अगाई माता मंदिर' दर्शनीय है। हालांकि पहाड़ी ज्यादा ऊंची नहीं है, लेकिन वह पहाड़ी अपनी श्रृंखला की अंतिम‌ पहाड़ी है। इसी अंतिम पहाड़ी पर यह मंदिर स्थित है। उसके चारों तरफ और भी काफी छोटी-बड़ी पहाडियां नजर आती हैं। यहाँ से गुरु शिखर नजर आता है और माउंट आबू की तरफ के कुछ गांव भी।
                'अगाई माता' यहाँ के राजपूत समाज की देवी है। इसका इतिहास क्या है, यह तो खैर पता नहीं चला और बच्चों को भी इस विषय में कोई जानकारी नहीं। एक बात यह पता चली की पहले यह मंदिर छोटा सा था लकिन कुछ असामाजिक तत्वों ने इसका गुबंद तोड़ दिया और मंदिर को भी क्षति पहुंचाई। उसके बाद गांव वालों ने सहयोग से इस मंदिर का पुन: निर्माण किया। वर्तमान मंदिर भव्य और बड़ा है। इसी के साथ छोटा मंदिर में अवस्थित है।
अगाई माता मंदिर
            हम मंदिर की पहाड़ी पर घूमते कुछ देर घूमते रहे और फोटोग्राफी करते रहे। विभिन्न कोणों से फोटोग्राफी करने बाद हमने वापसी का रूख किया।
            वापसी में आते वक्त एक छोटा सा शिव मंदिर भी दिखाई दिया तो बच्चे उस मंदिर में भी ले गये। यह मंदिर भी रास्ते से हटकर एक पहाड़ियों के नीचे पानी के बहाव वाली जगह पर है।
         ‌वहाँ एक फलदार पौधा दिखाई दिया बच्चों ने बताया यह 'झमीरा' है। यह संतरे की तरह का एक खट्टा फल है।
झमीरा नामक फल

खेत, तालाब और पहाड़
मंदिर, पहाड़ आदि देखने बाद खेतों में कुछ देर घूमने बाद वापसी की।
हम तीन बजे के लगभग वापस घर पहुंचे। आज की यात्रा छोटी थी लेकिन अच्छी और मनोरंजन रही।


हम भी अच्छे लगते हैं।



सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

Bailey's Walk का सफर

Bailey's walk का सुहाना सफर 

      माउंट आबू के प्राकृतिक सौंदर्य के विभिन्न रंग हैं। इन रंगों में डूबना बहुत रोचक है।  माउंट आबू अरावली की पहाडियों में बसा एक शहर है।  प्रकृति की गोद में बसा यह छोटा सा शहर और इस शहर को चारों तरफ से जंगल और पहाड़ियों ने घेर रखा है। इन पहाडियों के अंदर विभिन्न सौन्दर्यमयी जगह है ।‌ 

        ऐसी ही एक जगह है Bailey's walk की। यह एक रास्ता है जो लगभग 2.5 km लंबा है। यह सनसेट से आरम्भ होकर घने जंगल से गुजरता हुआ नक्की झील या टाॅड राॅक पर खत्म होता है। इस रास्ते का सफर करना बहुत रोमांच भरा है।

             रविवार के अवकाश का लाभ उठाते हुए हमने घूमने का कार्यक्रम बनाया।  विद्यालय परिवार से स्थानीय शिक्षक बंधु छोटे लाल जी(व्याख्याता-इतिहास), श्यामसुंदर दास(व्याख्याता- गणित), हुकमचंद नामा(व्याख्याता- काॅमर्स) और मैं गुरप्रीत सिंह (व्याख्याता- हिन्दी) । चारों लगभग 12:30PM इस रास्ते पर निकले।

        अगर माउंट आबू के प्राकृतिक सौन्दर्य का वास्तविक आनंद उठाना है तो बरसात का मौसम बहुत अच्छा होता है। हालांकि बरसात के समय  जंगल और पहाड़ी पर जाना खतरनाक भी है। लेकिन उस समय जो यहाँ हरियाली होती है वह अवर्णनीय है।

                 Bailey walk का जहाँ से आरम्भ होता है वहाँ का दृश्य भी अच्छा है। सपाट पहाड़ी पर फोटोग्राफी का आनंद लिया जा सकता है। इस रास्ते में  जैसे-जैसे आगे बढते गये वैसे-वैसे रोमांच भी बढता गया। हालांकि यह मौसम बरसात का नहीं है, इसलिए बहुत से पेड़-पौधे सूख चुके हैं। 

                    अगर इस रास्ते पर शाम के वक्त निकलते तो भालु, तेन्दुआ या अन्य कोई जंगली जानवर का डर ज्यादा रहता है। रास्ते में एक- दो गुफाएं भी आयी। संभवतः उनमें जानवर रहते हो।

                    जंगल का नयनाभिराम दृश्य, शीलत वायु, कलरव यात्रा को और भी आनंददायक बना देता है। पहाड़ी से नीचे गाँव दिखते हैं,  खेत नजर आते हैं, चारों तरफ फैली हरियाली नजर आती है।  इस रास्ते पर फोटोग्राफी का अपना अलग ही मजा है। कहीं विभिन्न आकृति लिए हुए पेड़ हैं तो कहीं पहाड़ी कुछ आकृति बनाये खड़ी है। कहीं से नीचे खेत नयन को सुकून देते हैं तो कहीं बादल फोटो में बहुत अच्छे आते हैं। 

कुछ प्राकृतिक दृश्य

    

                 

       इस रास्ते में एक छोटा सा परंतु दिल को सकून देना वाला स्थान है, कनैल कुण्ड। इसके नामकरण के पीछे क्या कारण यह तो नहीं पता।  मैं एक बार पहले भी कनैल कुण्ड तक आ चुका हूँ।

                     कनैल कुण्ड इस रास्ते के किनारे एक चट्टान पर  छोटा सा कुण्ड है जहाँ किसी ने एक शिव लिंग स्थापित कर दिया। इस कुण्ड में प्राकृतिक रूप से पहाड़ियों से पानी बह-बह कर आता रहता है। जब की बरसात हुये कई महिने बीत गये, बरसात के अभाव में पेड़-पौधे सूख गये पर यहाँ पानी निरंतर रिसता रहता है। जब मैं पहली बार यहाँ आया था तब मेरे मन में यह प्रश्न था की जब बरसात का मौसम नहीं होगा तब तो यह कुण्ड अवश्य सूख जाता होगा। लेकि‌न अब यह भ्रम दूर हो गया। 

                     जिस चट्टान पर यह शिव लिंग/कुण्ड स्थापित है उस पर से पानी रिसता रहता है, वहाँ उपर चढने के लिए कोई अच्छी व्यवस्था नहीं है।‌ सावधानी से उपर चढना पड़ता है। अगर हाथ-पांव फिसल गया तो फिर सीधा नीचे।  हम चारों मित्र सावधानी से उपर चढे। मेरे मन में एक प्रश्न आय वह पहला व्यक्ति कौन रहा होगा जिसने इस स्थल को खोजा और वह व्यक्ति कौन था जिसने यहाँ शिवलिंग स्थापित किया। वहाँ कुछ अगरबत्ती के पैकेट और माचिस भी थी। शिव की महिमा शिव ही जाने।

                     हम वहाँ कुछ देर रूके,फोटोग्राफी की  और पुन: सफर पर बढ चले।

         कुछ आगे चलने पर नक्की झील दिखाई देने लगती है। यहाँ से तीन रास्ते निकलते हैं। जो अनन्त: नक्की झील पर ही पहुंचते हैं। एक रास्ता 'अगाई माता' मंदिर होते हुए नीचे उतरता है दूसरा रास्ता सीधा नक्की झील पर उतरता है और तीसरा रास्ता 'टाॅड राॅक' होते हुए नक्की झील तक जाता है हमने यह तीसरा रास्ता चुना। इसी रास्ते पर बैठ कर नाश्ते का आनंद लिया। थकान के कारण और शीतल छाया में समोसे और कोल्ड ड्रिंक का मजा भी गजब था।

हालांकि हमें टाॅड राॅक नहीं जाना था इसलिए टाॅड राॅक के पीछे से निकल गये।

          यह सफर हम चारों के लिए बहुत मजेदार रहा।

चन्द्रावती- एक ऐतिहासिक स्थल

चन्द्रावती- एक ऐतिहासिक स्थल

22.02.2019 को आबू रोड़(ओर गांव में)  एक विवाह समारोह में जाना हुआ। इसी दौरान हमारे विद्यालय के पूर्व पुस्तकालय प्रभारी रणवीर सिंह चौधरी जी मिल गये। रणवीर जी आबू रोड़ के ही निवासी हैं। उनके साथ ऐतिहासिक स्थल चन्द्रावती देखने का सौभाग्य मिला।

           चन्द्रावती एक ऐतिहासिक स्थल है जो आबू रोड़ से लगभग पांच- छह किमी. दूर है। मेरा जहाँ भी जाना होता है, मेरी इच्छा होती है वहाँ की सभ्यता और संस्कृति को देखने और समझने की, वहाँ के धार्मिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक स्थलों को देखने की। चन्द्रावती तो एक ऐतिहासिक स्थल है उससे वंचित कैसे रहते। मेरे साथ शिक्षक मित्र श्यामसुंदर जी, हुकमचंद नामा जी भी थे।
           विशाल क्षेत्र में इस जगह का फैलाव है। जो की तारबंदी और झाड़ियों से घिरा हुआ है।
           यहाँ एक कलादीर्घा है, जिसमें चन्द्रावती की खुदाई में मिली प्राचीन मूर्तियाँ रखी गयी हैं। इनमें से कुछ मूर्तियों खण्डित हैं तो कुछ सही अवस्था में भी हैं।
           कहीं योद्धा का सिर तो है लेकिन धड़ नहीं है, कहीं धड़ तो मौजूद है लकिन सिर गायब है। कुबेर जी भी उपस्थित हैं लेकिन खाली हाथ।
            माँ सरस्वती आसन पर विराजमान है लेकिन हाथ में  खण्डित वीणा है। कहीं विष्णु जी अधूरे हैं, कहीं गणेश जी तो कही कीचक महाराज। सब कुछ अधूरा -अधूरा सा मौजूद है, लेकिन यह अधूरापन भी अपने समय को पूरा करता है, यही अधूरापन हमें इतिहास की जानकारी उपलब्ध करवाता है।




            जहाँ पर खुदाई हुयी थी, उस जगह पर तार बंदी करके उसे सुरक्षित रखा गया है, लेकिन वहाँ इतनी झाडियां आदि हैं‌ की अंदर जाना संभव ही नहीं, हाँ स्थानीय ग्रामीण ईंधन के लिए यहीं से लकड़ियाँ काट कार ले जाते हैं। उनके लिए जगह-जगह बिखरे इन प्राचीन भग्नावशेष का कोई महत्व नहीं है।
         इस तारबंदी के अंदर असंख्य प्राचीन‌ मंदिर, घर आदि के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं। कभी कितने हर्ष और उंगम से ये घर बने होंगे, कितनी आशा और उम्मीद के बसेरे रहे होंगे। आज अपने खण्डहर हो चुके अस्तित्व को निहारते ये मंदिर कभी न जाने कितने लोगों के आस्था के केन्द्र रहे होंगे, लोगों की मन्नतों को पूर्ण करने वाले आज ये स्वयं अपूर्ण हैं।

              चन्द्रावती के विषय में जो ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है उसके अनुसार इस स्थल की खोज सन् 1822 में कर्नल जेम्स टॉड ने की थी।
      पुरातत्व विभाग द्वारा लगाये गये एक शीला पट्ट के अनुसार - चन्द्रावती 11-12 वी शताब्दी ई. में परमारों राजाओं की राजधानी थी। इस वंश में यशोधवल एवं धारवर्ष प्रतापी शासक हुये। इस नगरी में बड़ी संख्या में शैव-वैष्णव और जैन मंदिरों और राजप्रसादों का निर्माण हुआ।  सन् 1303 ई. तक यह नगरी परमारों के अधिकार में रही, तत्पश्चात यहाँ देवड़ा चौहानों का शासन राज्य हो गया।  वर्ष 1405 ई. से सिरोही राज्य की स्थापना होने तक यह स्थल देवड़ा चौहानों की राजधानी रहा।
            दिल्ली-गुजरात के मुख्य मार्ग पर स्थित होने के कारण इस समृद्धशाली नगरी चन्द्रावती को आक्रांताओं द्वारा अनेक बार लूटा गया तथा यहाँ स्थित मंदिरों को क्षतिग्रस्त किया गया।  इन मंदिरों के शिल्प और वास्तुखण्डों को  चन्द्रावती के वास्तुदीर्घा में प्रदर्शित किया गया है। यहाँ के मंदिरों की स्थापत्य शैली और भव्यता का चित्रों सहित वर्णन सन् 1922 ई. में सुप्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार कर्नल जेम्स टाॅड ने अपनी पुस्तक 'वेस्टर्न इण्डिया' में किया है।
         समय चक्र निरंतर चलता रहता है आज तो वैभवशाली है कल को वैभवहीन हो सकता है। शायद यही चन्द्रावती का भाग्य रहा है। अपने समय की एक वैभवशाली नगरी आज वैभवहीन है। 999 मंदिरों की नगरी तो स्वयं में वैभवशाली रही होगी लेकिन आज वे सब मंदिर अतीत हो गये, कुछ के अवशेष बाकी रहे हैं। वह भी टूट कर, जमीन पर,  गिर जाने के बाद।
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कलादीर्घा से एक चित्र


कलादीर्घा के अंदर भी कुछ जानकारी अलग-अलग शीर्षक  एकत्र की गयी है। जैसे 'लघु पुरावशेष'(Minor Object) में‌ लिखा है- विभिन्न प्रकार के लघु पुरावशेष जैसे पकी मिट्टी से बनी चूड़ियाँ एवं मनके, लोहे और तांबे से बने धातु के औजार, शीशे से निर्मित वस्तुओं के अवशेष एवं पकी मिट्टी से बनी मनुष्य और जानवरों‌ की मूर्तियाँ भी प्राप्त हुयी हैं। इसके अलावा पकी मिट्टी से बनी अनेक कलात्मक वस्तुएँ भी प्राप्त हुयी हैं जिनको संभवत मनोरंजन हेतु प्रयुक्त किया जाता रहा होगा।

         अपने समय की एक ऐतिहासिक और शौर्यवान नगरी चन्द्रावती अपने भग्नावशेष के साथ आज भी जिंदा है। कभी यहाँ भी सब आबाद था लेकिन आज चारों तरफ सन्नाटा पसरा है, जहाँ कभी फूल खिलते थे वहाँ आज कंटीली झाड़ियां है। बिता समय कभी लौट कर तो नहीं आता, लेकिन हम उस समय को यादों में, वास्तु में समेट सकते हैं।
             ऐतिहासिक स्थल चन्द्रावती को आज संरक्षण की आवश्यक है, स्थानीय प्रशासन भी अगर सजग हो, ग्रामीण अगर सचेत हो तो यह स्थल पूर्णतः सुरक्षित रह सकता है।
बायें से- रमेश पुरोहित जी, रणवीर चौधरी जी, गुरप्रीत सिंह, हुकमचंद नामा, श्यामसुंदर जी।



            

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

पहाड़ पर क्राॅस


माउंट आबू में प्रसिद्ध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व के स्थलों के अलावा भी बहुत से छोटे-छोटे ऐसे स्थान है जो देखने योग्य हैं। ऐसे कई स्थान जो पुस्तकों में वर्णित नहीं, मैप पर नहीं और जहाँ पहुंचने के लिए सुगम रास्ता नहीं है।

                 ऐसा ही एक स्थान है 'पहाड़ पर क्राॅस'। माउंट आबू के प्रसिद्ध पोलो मैदान से एक पहाड़ी पर 'प्रभु यीशु का क्राॅस' नजर आता है। मेरे (गुरप्रीत सिंह) और मित्र मनोज कुमार राजोरा में कई बार इस विषय पर चर्चा होती थी कि उस पहाड़ी पर कब चलें। कभी समय न मिला, कभी इच्छा न हुयी तो कभी स्थानीय साथी न मिला जो उस पहाड़ी का रास्‍ता जानता हो।
                  रविवार (10.02.2019) को समय मिल ही गया। मैं, मनोज और हुकम नामा जी तीनों निकल पड़े।
                  "भाई, वहाँ जाने का रास्ता मुझे नहीं मालूम।"-मैंने कहा।
                  " जब निकल ही लिए तो रास्ता भी मिल जायेगा। किसी से पूछ लेंगे।"- हुकम‌ जी मे कहा।
                  इतना तो अनुमान था की क्राॅस वाली पहाड़ी गौमुख के रास्ते में आती है। एक बार जब हम गौमुख गये थे। तब वह क्राॅस देखा था। पहाड़ की एक यह विशेषता है की उस पर जो 'चीज' है वह दूर से तो नजर आती है लेकिन जब उसके पास पहुँचते हैं तो वह नजर नहीं आती और रास्ता, वह तो ढूंढना भी मुश्किल हो जाता है।
     ‌‌‌‌     रास्ता था ही ऐसा की चलते-चलते साँस फूलने लगता है। पहाड़ के रास्ते पर तो मजबूत पांव का आदमी ही चल सकता है। क्राॅस वाला पहाड़ तो नजदीक था लेकिन थकान भी भरपूर थी।      

               हम भी एक बार तो उस रास्ते से आगे निकल गये थे। आगे एक धार्मिक संस्थान था। वहाँ से क्राॅस वाली पहाड़ी का रास्ता पूछा तो पता चला की उसके लिए एक छोटा सा रास्ता है जो की पीछे रह गया।
                      उस पहाड़ी पर पहुंचने के लिए एक अनघड़ पगडंडी थी। उस घुमावदार रास्ते से हम उपर पहुंचे। पहाड़ी पर चढने का रास्ता जरा मुश्किल था, पर लंबा न था।
                      उपर पहुंच तो एक अलग ही नजारा था।‌ प्रभु यीशु की एक विशाल मूर्ति वहाँ स्थित थी। सफेद पत्थर से निर्मित, प्रभु यीशु सलीब पर लटके हुए। उपर पहुंचे तब तक थक गये थे।‌ उस पहाड़ी पर एकमात्र प्रभु यीशु की उस विशाल मूर्ति के  अतिरिक्त और कुछ नहीं था। मूर्ति की छाया में हमने विश्राम किया। वहाँ शांति थी, शीतल हवा थी।
            वहाँ पर घास खूबसूरत थी। घास सूख चुकी थी लेकिन उसका सौन्दर्य यथावत था। अगर वह घास  हरी होती तो नयन कभी भी तृप्त न होते। 

  हुकम जी ने तो दिल लूटा दिया घास पर। हुकम जी का विशेष शौक फोटोग्राफी है। उस घास पर जो एक बार लेट फिर तो विभिन्न एंगल से फोटोशूट होता रहा।

    ‌‌मनोज सर को घूमता का शौक है लेकिन फोटो का नहीं इसलिए वे पहाड़ी पर बैठ एक साधक की तरह शहर को निहारते रहे।


                       यहाँ से पूरा माउंट आबू शहर नजर आता था। कुछ समय हम तीनों मित्रों ने वहाँ फोटोग्राफी की। एक फोटो के  दौरान, उछलते हुए घुटने में दर्द हो गया। दर्द के कारण काफी परेशानी हुयी। हालांकि वह फोटो बहुत अच्छी आयी थी।

                       पहाड़ी पर उस मूर्ति के अतिरिक्त और कुछ न था। थकान और प्यास से परेशान थे। फोटोग्राफी और विश्राम के पश्चात हमने वहाँ से वापसी की।
                       लगभग तीन घण्टे की यह यात्रा रोचक और यादगार रही।