पृष्ठ

रविवार, 22 दिसंबर 2019

रणथम्भौर की यात्रा

रणथम्भौर दुर्ग की अविस्मरणीय यात्रा

  दिसंबर 2019 में राजस्थान के सवाईमाधोपुर के प्रसिद्ध अभयारण्य में स्थित रणथम्भौर दुर्ग की यात्रा करने का अवसर मिला। यह यात्रा मेरे लिए बहुत रोचक रही।
विद्यालय में शिक्षक सम्मेलन का दो दिवसीय अवकाश था और एक रविवार भी साथ में शामिल था। तीन दिन में कार्यस्थल (माउंट आबू) से घर (बगीचा, श्रीगंगानगर) आवागमन संभव नहीं। इसलिए जयपुर छोटी बहन के पास जाने का विचार था।

हुकम चंद नामा जी हमारे विद्यालय के वाणिज्य के एकमात्र व्याख्याता है। वे सवाईमाधोपुर के मूलनिवासी है। उन्होंने प्रस्ताव रखा की भाई मेरे साथ सवाईमाधोपुर चलो, वहाँ घूम आना, फिर जयपुर आ जा‌ना। प्रस्ताव मुझे भी अच्छा लगा, साथ में जयपुर भी जाना हो जायेगा।

 मैं और हुकम जी 05.12.2019 को आबू रोड़ से 3:00 PM ट्रेन से रात ग्यारह बजे जयपुर पहुंचे और आगे ट्रेन से सवाईमाधोपुर और रात को तीन बजे घर पहुंचे।

06.12.2019 शुक्रवार लगभग 11 बजे हम विश्व प्रसिद्ध रणथम्भौर अभयारण्य पहुंचे। यहाँ दो दर्शनीय स्थल है। एक तो दूर-दूर तक विस्तृत जंगल और दूसरा राणा हम्मीर का किला। हम यही किला देखने गये थे। अभयारण्य फिर कभी देखेंगे।

लगभग चार किलोमीटर घने जंगल में सड़क यात्रा करने के पश्चात गंतव्य पर पहुंचे। इस किले की एक बड़ी विशेषता यह है की यह दूर से दिखाई नहीं देता। हालांकि यह अन्य किलों की तरह पहाड़ी पर स्थित है।
दुर्ग का बाहरी दृश्य
इसीलिए अबुल फजल ने इस दुर्ग के विषय में लिखा था।
 "अन्य सब दुर्ग नंगे हैं जबकि यह दुर्ग बख्तरबंद है।" इसका कारण यह है की चारों तरफ पहाड़ियों से घिरे होने के कारण यह दुर्ग दूर से नजर नहीं आता। यह विन्ध्याचल की पहाड़ियों के मध्य स्थित है।

 रन और थम्भ नाम की पहाडियों के बीच 12 कि.मी. की की परिधि में बना यह दुर्ग के तीनों और पहाडों में प्राकृतिक खाई बनी है जो इस किले की सुरक्षा को मजबूत बनाती है। मैं कल्पना कर सिहर उठता हूँ कैसे आक्रमणकारी इन गहरी खाईयों को पार करके इस दुर्ग में घुसे होंगे।

जब किले के द्वार पर पहुंचे तो एक अजीब सा अहसास अंदर तक समाता चला गया। एक योद्धा का किला, अपने समय की गौरव गाथा सुनाता किला। और आज बेबस उदास सा, अपने हालात पर आँसू बहाता किला। काफी ऊंचाई पर स्थित इस किले को देखने के लिए गरदन ऊंची उठानी पड़ती है।

        किले में प्रवेश करने पर यहाँ लगा एक शिलापट रणथम्भौर दुर्ग के स्थापना, शासक आदि की संक्षिप्त जानकारी प्रदान करता है। यह संक्षिप्त जानकारी भी काफी उपयोगी है। 
पुरातत्व विभाग द्वारा लगाया गया शिलापट
'रणथम्भौर दुर्ग भारत के सर्वाधिक मजबूत दुर्गों में से एक है जिसने शाकम्भरी के चाहमान साम्राज्य को शक्ति प्रदान करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की। यह कहा जाता है की इस दुर्ग का निर्माण महाराजा जयंत ने पांचवीं शती ई. में‌ किया था। बाहरवी शती पृथ्वीराज चौहान आने तक यहाँ यादवों ने शासन किया। हम्मीर देव (सन् 1283-1301ई.) रणथम्भौर का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था, जिसने कला और साहित्य को प्रश्रय दिया एवं सन् 1301 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का वीरतापूर्ण सामना किया। इसके बाद दुर्ग पर दिल्ली के सुल्तानों का अधिकार हो गया। बाद में यह राणा सांगा (1509-1527 ई.) तथा तत्पश्चात मुगलों के नियंत्रण में रहा।
        यह दुर्ग रणथम्भौर व्याघ्र अभयारण्य के ठीक मध्य स्थित है। विशाल रक्षा प्राचीर से सुदृढ़ इस दुर्ग में सात दरवाजे- नवलखा पोल, हथिया पोल, गणेश पोल, अंधेरी पोल, सतपोल, सूरज पोल एवं दिल्ली पोल है।
       दुर्ग के अंदर स्थित महत्वपूर्ण स्मारकों में - हम्मीर महल, रानी महल, हम्मीर बड़ी कचहरी, छोटी कचहरी, बादल महल, बत्तीस खम्भा छतरी, झंवरा-भंवरा(अन्न भण्डार),मस्जिद एवं हिन्दू मंदिरों के अतिरिक्त एक दिगम्बर जैन मन्दिर तथा एक दरगाह स्थित है। यहाँ स्थित गणेश मंदिर पर्यटकों के सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र है।'


       ऐतिहासिक, धार्मिक आदि जगहों के साथ कुछ न कुछ किंवदंतियां जुड़ ही जाती हैं। इनमें कितना सत्य है और कितना असत्य यह तय करना थोड़ा मुश्किल अवश्य होता है लेकिन इनमें जो रोचकता होती है वह रोमांचित अवश्य कर देती है। ऐसी ही एक किंवदंती यहाँ एक दरवाजे के पास चट्टान पर 'चिह्नित निशानों' के सम्बन्ध में भी प्रचलित है।
        दरवाजे के पास से किले की दीवार की ऊंचाई बहुत ज्यादा है। वहीं एक चट्टान पर कुछ निशान हैं देखने मात्र से वे निशान घोड़े के खुर के समान नजर अवश्य आते हैं। ऐसा माना जाता है की एक बार युद्ध के दौरान राणा हम्मीर ने अपने घोड़े को यहाँ से छलांग लगवा दी थी। और घोड़ा यहीं से काफी ऊंची दीवार पर चढ गया था। ये निशान उसी दौरान के हैं।
अब इस कहानी में सत्य और असत्य को खोजना जरा मुश्किल है पर उस दीवार को देखकर जो रोमांच होता है वह सत्य है।
चट्टान पर चिह्नित निशान
        इस के दुर्ग के सात दरवाजे हैं और उनकी एक बड़ी विशेषता ये है की ये सब 90 डिग्री के कोण पर हैं। किसी भी दरवाजे के आगे ज्यादा जगह नहीं है, यह सुरक्षा की दृष्टि से उत्तम उपाय है। क्योंकि आक्रमणकारी इससे दरवाजे को क्षति नहीं पहुंचा सकते।
दुर्ग का एक दरवाजा




















दुर्ग में आगे जाने पर एक जगह पूरे दुर्ग का एक शिलापट पर चित्र अंकित है। वहाँ से दुर्ग को समझना आसान हो जाता है।
     राणा हम्मीर द्वारा अपनी पिता जैत्र मल की स्मृति में निर्मित 32 स्तम्भ की छतरी दर्शनीय है। और इसी छतरी के नीचे एक शिवलिंग आकर्षण का केन्द्र है।
     इसी छतरी से थोड़ी सी दूरी पर एक अर्द्ध निर्मित छतरी भी नजर आती है। जिसको अब पेड़-पौधों और लताओं ने अपने आगोश में छिपा लिया।
32 स्तम्भ छतरी
अर्द्ध निर्मित छतरी

    अपने समय का मजबूत दुर्ग आज के अधिकांश भाग खण्डित हो चुके हैं। समय की मार और प्रशासन की लापरवाही एक दुर्ग के अंग-अंग पर अंकित है। कहीं किसी महल का नाम नहीं, कहीं कोई किले का महत्व दर्शाने वाली जानकारी दर्ज नहीं, इतनी उपेक्षा क्यों?

      रणथम्भौर दुर्ग किसी शासक के कारण चर्चित रहा है तो वह है राणा हम्मीर। सन् 1282-1301तक यहां हमीर का शासन रहा । हम्मीरदेव का 19 वर्षो का शासन इस दुर्ग का स्वर्णिम युग था। हम्मीर देव चौहान ने 17 युद्ध किए जिनमे 13 युद्धों में उसे विजय प्राप्त हुई। राणा हम्मीर और अलाउद्दीन खिलजी का सन् 1301का वह युद्ध जिसमें हम्मीर को पराजय का सामना करना पड़ा और इसी के साथ इस दुर्ग का स्वरुप भी बदल गया।
लेकिन राणा हम्मीर की शौर्यगाथाएं आज भी जीवत है। दुर्ग के कण-कण से लेकर किंवदंतियों से गुजरती हुयी ये गाथाएं इतिहास के पन्नों पर अमिट है।

       दुर्ग में एक प्रसिद्ध त्रिनेत्र गणेश मंदिर है और वर्तमान में इस दुर्ग का महत्व इसी वजह से ही है, अधिकांश लोग गणेश दर्शानार्थ ही यहाँ आते हैं। गणेश जी आधी मूर्ति है। इसके पीछे भी एक रोचक किवंदती है की त्रिनेत्र गणेश जी मूर्ति जमीन से प्रकट हुयी थी।

      गणेश मंदिर के प्रागण में घूमते लंगूर भी दर्शकों को आकृष्ट भी करते हैं और हल्का सा परेशान भी।
मंदिर परिसर में
     मंदिर के प्रांगण में खड़े होकर देखे तो यहाँ से आगे की किले का परकोटा दिखाई देता है लेकिन मित्र हुकुम जी के अनुसार वहाँ अकेले में जाना खतरनाक हो सकता है। आगे पूरा जंगल था, ध्वस्त दीवारें ही दिखाई देती थी। मेरी इच्छा होती है की उन जगहों को भी देखा जाये की आखिर वहाँ क्या था? लेकिन हर इच्छा पूर्ण कहां होती थी।

         मंदिर का रास्ता किले के परकोटे के साथ-साथ है। यहाँ से वापस निकले तो रास्ते में कुछ मुस्लिम धर्म के मस्जिद के अवशेष दिखाई दिये। वे भी अधिकांश खण्डित हो चुके है ये शायद उस समय के दरगाह-मस्जिद आदि रहे होंगे जब यहाँ मुस्लिम शासकों ने शासन किया था।

        इसके पास ही एक तालाब है जिसे पदम तालाब कहा जाता है। इस तालाब के किनारे बने झरोखे वास्तव में अदभुत है, उस समय के परिश्रमी लोगों की कला के प्रतीक हैं। झरोखे से थोड़ा आगे एक छोटा सा मकान है जिससे कुछ सीढियां नीचे तालाब में उतरती हैं। कभी यहाँ भी महफिले गुलजार रही होंगी, कभी यहाँ भी खुशियाँ खेलती होंगी, कभी यहाँ भी राजा-रानी ने आनंद लिये होंगे, लेकिन अब तालाब कचरे से भरा हुआ है।
रास्ते से थोड़ा अलग हटकर एक छोटा सा काली माता का मंदिर भी है। वहाँ से जंगल के मध्य से होते हुए हम एक और मंदिर तक पहुंचे। वह एक जैन मंदिर था। जैन मंदिर पुनः मुख्य मार्ग पर पहुंचे यहा से एक और रास्ता निकलता है। एक बड़ी सी झील के साथ-साथ हम आगे बढे तो यहाँ एक बड़ी दरगाह नजर आयी। यह दरगाह मुगल शासकों के इस दुर्ग पर आधिपत्य की याद दिलाती है। इस दरगाह पर छोटा सा शिलापट लगा था जिस पर लिखा था- "दरगाह काजी पीरशाह सदरूद्दीन"

        यहाँ पर एक विशाल दरवाजा है लेकिन समय के साथ खण्डहर हो चुका है। इस दरवाजे से आगे काफी महल हैं जो मुझे काफी आकर्षक लगे। शायद ये महल मंत्री वर्ग के रहे होंगे। झील के पास ये महल, हम्मीर महल से हालांकि कुछ दूर अवश्य स्थित है पर यहाँ से जंगल और दूर स्थित एक अन्य झील का आकर्षक दृश्य नजर आता है।

     हमसे पहले भी कुछ लोग वहाँ घूम रहे थे। वैसे किले संरक्षकों की तरफ से वहाँ न तो कोई सूचना पट था न ही कोई मार्गदर्शक। अपनी इच्छा से आप वहाँ स्वतंत्रता से घूम सकते हैं लेकिन जंगल के जानवरों का एक अदृश्य डर भी साथ रहता है।

         पहले महल में हमें कुछ विशेष न लगा लेकिन उससे थोड़ा सा आगे एक और महल था जिसकी मरम्मत का कार्य चल रहा था। वहाँ पड़ा सामान देखकर हमने यह अंदाजा लगाया था। हालांकि यह महल भी क्षतिग्रस्त था लेकिन फिर भी कुछ हद तक दर्शनीय है। हम इसकी छत पर पहुंचे। इसकी छत से दूर तक का नजारा किया जा सकता है।
क्षतिग्रस्त होने का दर्द
     छत से एक और मकान नजर आया। वह एक यहाँ से काफी दूर एक पहाड़ी पर स्थित था। वहाँ जाना संभव न था।

     यहाँ काफी समय तक घूमने के पश्चात हम वापस चल दिये। रास्ते में एक 'दुल्हा महल' नजर आया। एक मात्र यही महल था जिस पर एक छोटा सा शिलापट लगा था और हमारी दृष्टि में एक मात्र यही महल था जिसे बाहर से देखकर हम संतुष्ट हो गये।

      वर्तमान में रणथम्भौर दुर्ग को 'राजस्थान के पर्वतीय दुर्ग' श्रृंखला नामांकन के तहत विश्व की सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक धरोहर के संरक्षणार्थ कन्वेंशन द्वारा विश्व दाय सूची में सम्मिलित किया गया है

        रणथम्भौर दुर्ग का यह सफर हमारे लिए यादगार रहेगा। विशाल जंगल के मध्य चट्टानों के उपर स्थित यह दुर्ग वास्तव में अदभुत है लेकिन समय और प्रशासन की मार इस दुर्ग को खत्म कर रही है।

     फिर भी यहाँ देखने से ज्यादा महसूस करने लायक बहुत कुछ है। किसी भी धरोहर को देखने अए ज्यादा महत्व उसको महसूस करने में है। जब आप उस स्थल, उसकी कहानियों को अपने अंदर अनुभव करते हो तो आप स्वयं को उस युग में उपस्थित पाते हो।



2 टिप्‍पणियां:

  1. पढते हुए ऐसा लगता है कि हम खुद रणतभंवर गढ घूम रहे हैं. हम्मीर देव की पुत्री देवलदे ने जल जौहर किया था, उसका जिक्र नहीं किया आपने.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जो जानकारी में था, वही लिखा है। आप द्वारा दी गयी जानकारी मेरे लिए नयी है।
      धन्यवाद।

      हटाएं