निरंतर उठती
बनती, बढती दीवारेँ
देती हैँ सुरक्षा
प्राकृतिक-अप्राकृतिक विपत्ति से
तब अच्छी लगती हैँ दीवारेँ।
धीरे-धीरे ह्रदय मेँ पनपती
ईर्ष्या, द्वेष की दीवारेँ
बाँटती मानवता को
धर्म, जाति और राजनीति की दीवारेँ
यूँ पलती-बढती
अच्छी नहीँ लगती दीवारेँ।
टूटती, फूटती, गिरती
कच्ची-पक्की दीवारेँ।
पर मुश्किल हो जाती है
गिरानी दिलोँ की दीवारेँ।।
-अभिनव प्रयास(अक्टु.-दिस.-2012)अलीगढ, उत्तर प्रदेश से प्रकाशित।
सुंदर रचना । बहुत कम शब्दों में बहुत लंबी कहानी कह दी आपने ।
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