अमृतसर सर इतिहास में जितना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए जाना जाता है उतना ही वह अपना महत्व धार्मिक दृष्टि से रखता है।
हरिमंदिर साहिब- अमृतसर |
मुख्य सड़क पर कोई चाय वाला न मिला। सड़क से हटकर एक गली के कोने पर एक चाय वाला नजर आया।
वास्तव में उस चाय वाले की चाय में स्वाद था। आजकल जहाँ काँच के गिलास की बजाय पेपर कप में चाय देने लगे हैं, चाय का स्वाद ही नहीं आता। पर यहाँ तो काँच का गिलास चाय से लबालब था। चाय वाले की एक और विशेषता थी की वह हर एक ग्राहक के लिए ताजा चाय बनाता था। हमने दो दिन यहीं से ही चाय पी।
अमृतसर के हरमंदिर साहब गुरुद्वारा का जो क्षेत्र है वह भी अपने आप में दर्शनीय है। गुरुद्वारे से जो मुख्य सड़क निकलती है उस सड़क पर Partition Museum और जलियांवाला बाग भी। इसलिए यह क्षेत्र अपना विशेष महत्व रखता है। यहाँ की अधिकांश इमारते लाल पत्थर से निर्मित हैं। लाल पत्थर और अपनी ऊँचाई के कारण अपना अलग ही प्रभाव छोड़ती है। उस पर वहाँ की सफाई आपको प्रभावित करती है। जब मैं इन इमारतों को देख रहा था जो ऐसा महसूस हो रहा था की मैं एक अलग ही जगह पर आ गया हूँ।
एक और विशेषता भी है इस क्षेत्र की। यहाँ पर दुकानों के आगे कोई साइन बोर्ड़ कोई हाॅर्डिंग आदि नहीं है। सब दुकानों के नाम एक निश्चित फाॅर्मेट में ही लिखे गये हैं। जो स्वयं में एक नया प्रयोग प्रतीत होता है। ज्यादातर देखा गया है की दुकानदार अपनी दुकान के आगे बोर्ड लगा देते हैं, अतिक्रमण लेते हैं, कचरा डाल देते हैं। यह सब कुछ कम से कम अमृतसर में इस क्षेत्र में तो नहीं नजर आया।
मेरी यह अमृतसर में प्रथम यात्रा थी। अमृतसर सिखों के पवित्र तीर्थ स्थल और जलियांवाला के लिए विशेष रूप से जाना जाता है, हालांकि इसके अतिरिक्त भी यहाँ ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के स्थान है।
अमृतसर सर अपने Golden Temple के कारण प्रसिद्ध है। जिसका वास्तविक नाम हरमंदिर साहब है(हरि का मंदिर)। हरमंदिर साहब का भी अपना एक इतिहास है।
सिख धर्म के चौथे गुरू रामदास जी ने यहाँ एक सरोवर बनवाया था, जिसे नाम दिया अमृत सरोवर। यही अमृत सरोवर कालांतर में अमृतसर हो गया।
इसी अमृत सरोवर के मध्य सिख धर्म के पंचम गुरु अर्जुनदेव जी ने हरमंदिर साहब की स्थापना करवायी थी।
आप भारत कहीं भी घूमने चले जाओ आपको वहाँ कुछ किवदन्तियां सुनने को मिलेंगी। और यह तो संभव ही नहीं की आप अमृतसर जाये और आपको यहाँ कोई दंतकथा सुनने को न मिले। यह अलग बात है की धर्म के संस्थापकों ने इन बातों का विरोध किया, पर जनता वही करती है जो उसे अच्छा लगता है। बाकी धर्म सार तत्व कोई नहीं समझना चाहता।
यहाँ सरोवर के तीन किनारों पर बेरी के वृक्ष हैं। जिनमें से दो की अलग-अलग कथा। एक बेरी 'दुख भंजन बेरी' कहलाती है अर्थात् दुख का हरण करने वाली।
इस बेरी के संबंध में एक रोचक कहानी है।
एक लड़की की शादी एक कुष्ठ रोगी से हो गयी। उस लड़की ने इसे ईश्वर की आज्ञा माना और अपने पति के साथ रहने लगी। एक बार वह अपने पति को सरोवर किनारे बैठाकर कहीं चली गयी।
तभी वहां एक कौआ आया और उसने सरोवर में डुबकी लगायी और वह हंस बनकर बाहर निकला। यह देखकर कुष्ठ रोगी चकित रह गया। उसने भी जब सरोवर में डुबकी लगायी तो उसका कुष्ठ रोग सही हो गया।
यही सरोवर कालांतर में अमृत सरोवर कहलाया।
सरोवर के किनारे स्थित द्वितीय बेरी की भी एक कथा है। हालांकि वह ऐतिहासिक घटना है।
जब इस गुरुद्वारा का निर्माण कार्य चल रहा था। तब बाबा बुड्ढा जी इसी बेरी के नीचे बैठकर निर्माण कार्य पर दृष्टि रखते और निर्देश देते थे। यह दोनों बेरी के वृक्ष आज भी स्थित हैं और पूजनीय है। एक और बात भी प्रचलित है। कहते हैं इस सरोवर का आकार समयानुसार बढा है पर यह दोनों वृक्ष यथावत किनारे पर ही स्थित रहे हैं।
हरमंदिर साहिब गुरुद्वारा चारों तरफ सरोवर से घिरा हुआ है। दर्शनार्थियों की यहाँ लम्बी कतार थी। हम दोनों भी इस कतार में एक हिस्सा बन गये। यहाँ के सेवादार कतार को बहुत अच्छे से व्यवस्थित किये हुये थे। कतार (line) में लगे दर्शनार्थियों के लिए हर समय जल की व्यवस्था दे रहे थे। वृद्ध, महिला या शारीरिक असक्षम वर्ग के लिए अतिरिक्त व्यवस्थाएं थी। लम्बी कतार में कही थकान,अव्यवस्था आदि का प्रभाव न था। यहाँ शांति और सुकून है।
गुरुद्वारा में निरंतर 'अमृत वाणी' का प्रसार हो रहा था। सरोवर के मध्य गुरुद्वारा और गुरुद्वारा के मध्य सिख धर्म का पवित्र ग्रंथ 'गुरुद्वारा ग्रंथ साहिब' उपस्थित। सिख धर्म में दसवें गुरु गोविंद सिंह जी के पश्चात गुरु परम्परा का निषेध कर अंतिम गुरु 'ग्रंथ साहिब' को ही माना है।
हम दर्शन के पश्चात वापस प्रागंण में पहुंचे। समय काफी व्यतीत हो चुका था। और भूख भी अपना असर दिखा रही थी। हमने लंगर घर की तरफ प्रस्थान किया।
सिख धर्म में लंगर प्रथा एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। लंगर में कहीं किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं है। सभी एक साथ, एक कतार में एक जैसा भोजन ग्रहण करते हैं।
यहाँ एक बात यह भी देखने में आयी निरंजन जारी लंगर में कहीं कोई व्यवधान नहीं है। यह व्यवस्था का सर्वोत्तम रूप है। इतने दर्शनार्थी आ रहे हैं, लंगर ग्रहण कर रहे हैं पर मैंने किसी को वहाँ लंगर का इंतजार करते नहीं देखा, कहीं अव्यवस्था नहीं देखी। सब लोग बैठे जा रहे हैं भोजन आ रहा है। लोग खा रहे हैं। सब कुछ व्यवस्थित है।
जलियांवाला बाग में आज भी शहीदों की याद में 'अमर-ज्योति' निरंजन जलती रहती है। बाग के मध्य में एक स्मारक का निर्माण भी करवाया गया है। यहाँ दीवारों पर गोलियों के निशान आज भी देखे जा सकते हैं। जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और जनरल डायर की क्रूरता की कहानी कहते हैं।
दीवार पर स्थित गोलियों के निशान सफेद घेरे में |
कहते हैं जब लंदन में ऊधम सिंह ने माइकल ओ ड्वायर (सर माइकल फ्रांसिस ओ ड्वायर, 1912 से 1919 तक भारत में पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर थे। जिसने जलियांवाला काण्ड को सही ठहराया था।) को मारने के बाद अदालत में अपना नाम मोहम्मद आजाद सिंह बताया था। जो 'हिन्दू-मुस्लिम और सिख' की एकता का प्रतीक था।
यहाँ तीन चार जगह बड़ी स्क्रीन पर जलियांवाला काण्ड को प्रदर्शित करते चलचित्र चले रहे थे। उनको देखकर एक सिहरन सी उठती है। हृदय भर जाता है और श्रद्धा से मस्तिष्क झुक जाता है। कितने लोगों ने भारत के लिए कुर्बानी दी। जिनके कारण आज हम यहाँ है।
बाग में आज भी वह कुआं स्थित है जहाँ लिये जनता ने गोलियों से बचने के लिए कुएं में छलाग लगा दी लेकिन वह जिंदा बाहर न आ सके।
इस कुएं को देखकर आँखों में आँसू आ गये। जलियांवाला देखने की बजाय महसूस करने की जगह है। बाग में घूमते मन भारी हो गया। शाम घिर आयी थी।
हम यहाँ से वापस होटल लौट आये।
01.11.2021 द्वितीय दिवस
चाय पीने के पश्चात हम अमृतसर में ही शहर के बाहर स्थित 'गोबिंदगढ' किले को देखने पैदल ही निकल लिये।
गोबिन्द गढ- अमृतसर |
यहाँ संस्कृति को प्रदर्शित करने वाले थियेटर हैं और कुछ और भी कार्यक्रम आयोजित होते हैं। उनका टिकट है समय निर्धारित है। हमारे पास समय कम था इसलिए हम किसी show में न जाकर सामान्य टिकट 45₹-45₹ के प्राप्त कर किले में घूमने निकले।
यहाँ कुछ अलग-अलग दीर्घ मकान बने हैं और प्रागण भी विस्तृत है। प्रागण के मध्य एक विस्तृत इमारत स्थित है। जिसमें कुछ सामान पर्दशन के लिये रखा गया है। नजदीक ही एक तोषखाना है जिसमें महाराजा रणजीत सिंह जी के समय हीरों ( diamond) का संग्रह रखा जाता था। वर्तमान में यहाँ सिक्कों का संग्रह है।
तोशखाना का इतिहास
यह भवन अपने समय की धीरे-धीरे विकसित और निर्मित हो रही विभिन्न अवधियों का रोचक और परतदर इतिहास समेटे हुये है। महाराजा रणजीत सिंह ने 1802 में अमृतसर पर विजय प्राप्ति के दौरान भंगी मिस्ल शासकों से गोबिंद गढ किला जीतने के बाद तोषखाना भवन का निर्माण करवाया था। यह भवन 1805 और 1809 के बीच किले में किये गये एक विस्तृत नवीनीकरण परियोजना का हिस्सा थी जो फ्रांसीसी और इतालवी जनरलों/ सलाहकारों - अल्लार्ड और वेंचुरा द्वारा प्रदान किये गये यूरोपीय किलेबंदी दिशा निर्देश के अनुसार किया गया था। कहा जाता है कि तोषखाना में लगभग 2000 सिपाहियों की सुरक्षा में लाखों रुपयों के सोने, चांदी, बहुमूल्य आभूषण और प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा रखे जाते थे।
दूसरा आंग्ल-सिख युद्ध (1848-49) होने पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 30 मार्च 1949 को औपचारिक रूप से सिख साम्राज्य को हड़प लिया था। कम्पनी में दर्ज रिकाॅर्ड के अनुसार, 1849-55 की अवधि दौरान गोबिंद गढ किले में सेना दाखिल हो गयी और किले को पुनः विकसित किया गया। तोशाखाना की इमारत को बाद में बारूदखाने में रूपांतरित कर दिया गया था। इस इमारत में युद्ध सामग्री और अस्त्र-शस्त्र भी संग्रहित किया जाता था।
गोबिंदगढ के पश्चात हम एक बार पुनः हरमंदिर साहब गुरुद्वारा गये। आज यहाँ सिख संग्रहालय भी देखा जो सिखों के इतिहास को दर्शाता है। वहीं एक कमरे में एक चित्रकार महोदय अपनी कूंची से एक चित्र उकेर रहे थे। सिखों के प्रथम गुरु से लेकर बाद तक ना इतिहास इन चित्रों में जीवंत नजर आता है।
बड़े आकार के यह चित्र बहुत ही भव्य हैं। जो सिख इतिहास को जीवंत करते हैं।
इसी के नजदीक बने 'बाबा अटल राय साहब जी' गुरुद्वारा पहुंचे। यह भी एक दर्शनीय और ऐतिहासिक महत्व का गुरुद्वारा है।
इसी के पास में एक छोटा सा बाजार भी स्थित है। वहाँ से कुछ खरीदारी की। हमारी आगे इच्छा बाबा दीप सिंह गुरुद्वारा जाने की थी वह यहाँ से दूर था।
इस म्युजियम में भारत विभाजन से संबंधित सामग्री और तात्कालिक भारत का प्रतिनिधित्व करती सामग्री उपलब्ध है।
यह म्युजियम भी लाल पत्थर से निर्मित एक विशाल इमारत में है। लेकिन जब हम इस म्युजियम में पहुंचे तो पता चला की सोमवार को यह बंद रहता है। लेकिन इस बंद की सूचना बाहर कहीं नहीं थी। अंदर टिकट खिड़की पर यह सूचना उपलब्ध थी। अगर यह सूचना पहले होती तो हम रविवार को यहाँ घूम लेते।
होटल का चैक आउट का समय हो गया था। कमरा खाली किया, होटल से चैक आउट किया और सामान वही होटल में जमा करवा दिया। क्योंकि ज्यादा सामान लेकर घूमना तो सम्भव नहीं था।
आगे हमारा कार्यक्रम 'अटारी-वाघा बॉर्डर' जाने का था। लेकिन इस से पूर्व हमें घर जाने के लिए बस की व्यवस्था भी देखनी थी। अमृतसर से रायसिंहनगर को कोई बस की सुविधा नहीं थी। एक Online site से जब अमृतसर से श्री गंगानगर की बस बुकिंग करने लगे तो समस्या आ रही थी। हर बार Payment fail का मैसेज आ रहा था, पता नहीं क्या समस्या थी। हम दोनों परेशान, नहीं मैं ही कुछ ज्यादा परेशान हो उठा था। शायद मोबाइल में समस्या हो, जब श्रीमती जी के फोन से ट्राई किया तो समस्या यथावत बनी रही। फिर जब बैंक अकाउंट में बैलेंस देखा तो वह पर्याप्त न था।
जब समस्या दृष्टिगत हुयी तो फिर समाधान भी हो गया। बस रात के ग्यारह बजे की थी। और हम हमारे पास समय था।
Partition museum से हम आॅटो से 'अटारी-वाघा बॉर्डर' को निकले। यह लगभग एक घण्टे का सफर था।
यह GT Road पर स्थित है। यहाँ से अमृतसर 32 KM और लाहौर 22 KM दूकरेगा। कभी अमृतसर और लाहौर दोनों ही पंजाब के शहर होते थे, लेकिन विभाजन ने दोनों को अलग-अलग कर दिया।
यहाँ हर शाम जो राष्ट्रीय ध्वज उतारने से पूर्व दोनों देशों के मध्य परेड का आयोजन होता है।
देशभक्ति गीतों से माहौल में एक अलग ही शमा बंध जाता है। आॅटो यहाँ से काफी दूर उतार देता है। आगे का सफर आपको GT Road पर BSF की निगरानी में पैदल ही तय करना है। हाँ, एक बात और ध्यान देने योग्य है। आप वहाँ मोबाइल और पर्स के अतिरिक्त और कुछ नहीं ले सकते, मोबाइल का नेटवर्क काम नहीं करेगा।
दूर से भारत और पाक के ध्वज फहराते नजर आते हैं। यहाँ एक भव्य दरवाजा है और उस से आगे सड़क के दोनों तरफ स्टेडियम है। जहाँ काफी संख्या में लोग उपस्थित थे।
वहां चल रहे देशभक्त गीतों जनता में जोश भरने का काम करते हैं। जनता की हुँकार गीतों से ज्यादा हो जाती है। सामने पाकिस्तान स्टेडियम है, जनता बैठी है। वहाँ भी गीत है, और जनता की आवाज भी।
वन्देमातरम्, भारत माता की जय, जय हिन्द के नारों से स्टेडियम गूँजने लगता है।
परेड से पूर्व कुछ बच्चियां और औरतें तिरंगे के साथ मार्च करती हैं। यह सौभाग्य स्टेडियम में बैठी किसी भी महिला शक्ति को मिल सकता है। इस पर वहाँ कोई नियम नहीं। यह एक अच्छी बात है।
कुछ समय पश्चात परेड आरम्भ हो गयी। दोनों देशों के जवान आमने-सामने परेड करते हैं। यह दृश्य पूर्णतः रोमांच पैदा करता है। और हां, इस परेड में दो BSF महिला सबसे आगे थे। पाकिस्तान की तरफ से कुछ पता नहीं।
अटारी-वाघा बॉर्डर की यह परेड वास्तव में दर्शनीय और अविस्मरणीय है।
परेड के पश्चात दोनों देश अपने-अपने ध्वज उतारते का कार्यक्रम करते हैं। जहाँ परेड के वक्त दोनों देश प्रतिद्वंद्वी नजर आते हैं, वहीं ध्वज उतारते वक्त दोनों में सादगी और सौहार्द नजर आता है। बस यह सौहार्द बना रहे।
कभी मेरी एक रूचि थी, जिस भी शहर में जाता वहाँ एक पुस्तक अवश्य खरीदता था। अब यह आदत लोकप्रिय उपन्यास साहित्य को समर्पित हो गयी। जैसे-जैसे लोगों की साहित्य पढने की आदत खत्म हो रही वैसे-वैसे शहरों से साहित्य की दुकानें बंद हो रही हैं। लेकिन अमृतसर में मुझे दुकानें नजर आयी। इसलिये वापस आते वक्त जब मुझे एक दुकान नजर आयी तो हम वहीं उतर गये।
जब मैंने श्रीमती से कहां की एक किताबों की दुकान है वहाँ चलना है अगर आप कहो तो।
उन्होंने हंँसते हुये कहा,-"जब दुकान दिख ही गयी तो फिर चलो चलते हैं।"
हालांकि उस दुकान पर रीमा भारती और केशव पण्डित के उपन्यासों के अतिरिक्त और कोई उपन्यास न थे। वहाँ से हम पैदल ही चले, होटल अभी दूर था। रास्ते में Hall Gate के पास भी कुछ दुकानें थी। वहाँ से मैंने चार उपन्यास खरीदे। यहाँ से होटल नजदीक ही था।
होटल से सामान उठाकर हम एक बार फिर हरमंदिर साहब (Golden Temple) आ गये। राते में यहाँ का दृश्य अदभुत होता है। रोशनी में जगमगाते स्वर्णकलश मन को मोह लेते हैं। जल में प्रतिबिंबित होता मंदिर का अक्श, धीमे-धीमे जल के साथ हिलोरे लेता हुआ दिव्य आकर्षण पैदा करता है। रात्रि का समय, गुरबाणी और हल्की-हल्की ठण्ड समय को यादगार बना देती है। लंगर ग्रहण के पश्चात हम दस बजे तक इस पवित्र स्थल पर शांति से सरोवर के किनारे बैठे रहे। एक बात और अच्छी लगी। यहाँ जो जिस वाणी का प्रसार होता है वह बड़ी-बड़ी दो स्क्रीनों पर लिखित रूप पंजाबी और अंग्रेजी में भी प्रदर्शित होता है। आप जुस वाणी को सुनते हैं उसका अर्थ भी पढ सकते हैं।
रात्रि को हम अमृतसर बस स्टेण्ड पहुंचे।
निर्धारित समय से एक घण्टा देरी से आयी बस में हम सवार होकर अपने गंतव्य (घर) को रवाना हुये।
Bot nice यात्रा वृतांत इसे पढ़कर ऐसे लग रहा है कि खुद ने यात्रा ही कर ली अमृतसर और जलियांवाला बाग की।
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