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सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

Bailey's Walk का सफर

Bailey's walk का सुहाना सफर 

      माउंट आबू के प्राकृतिक सौंदर्य के विभिन्न रंग हैं। इन रंगों में डूबना बहुत रोचक है।  माउंट आबू अरावली की पहाडियों में बसा एक शहर है।  प्रकृति की गोद में बसा यह छोटा सा शहर और इस शहर को चारों तरफ से जंगल और पहाड़ियों ने घेर रखा है। इन पहाडियों के अंदर विभिन्न सौन्दर्यमयी जगह है ।‌ 

        ऐसी ही एक जगह है Bailey's walk की। यह एक रास्ता है जो लगभग 2.5 km लंबा है। यह सनसेट से आरम्भ होकर घने जंगल से गुजरता हुआ नक्की झील या टाॅड राॅक पर खत्म होता है। इस रास्ते का सफर करना बहुत रोमांच भरा है।

             रविवार के अवकाश का लाभ उठाते हुए हमने घूमने का कार्यक्रम बनाया।  विद्यालय परिवार से स्थानीय शिक्षक बंधु छोटे लाल जी(व्याख्याता-इतिहास), श्यामसुंदर दास(व्याख्याता- गणित), हुकमचंद नामा(व्याख्याता- काॅमर्स) और मैं गुरप्रीत सिंह (व्याख्याता- हिन्दी) । चारों लगभग 12:30PM इस रास्ते पर निकले।

        अगर माउंट आबू के प्राकृतिक सौन्दर्य का वास्तविक आनंद उठाना है तो बरसात का मौसम बहुत अच्छा होता है। हालांकि बरसात के समय  जंगल और पहाड़ी पर जाना खतरनाक भी है। लेकिन उस समय जो यहाँ हरियाली होती है वह अवर्णनीय है।

                 Bailey walk का जहाँ से आरम्भ होता है वहाँ का दृश्य भी अच्छा है। सपाट पहाड़ी पर फोटोग्राफी का आनंद लिया जा सकता है। इस रास्ते में  जैसे-जैसे आगे बढते गये वैसे-वैसे रोमांच भी बढता गया। हालांकि यह मौसम बरसात का नहीं है, इसलिए बहुत से पेड़-पौधे सूख चुके हैं। 

                    अगर इस रास्ते पर शाम के वक्त निकलते तो भालु, तेन्दुआ या अन्य कोई जंगली जानवर का डर ज्यादा रहता है। रास्ते में एक- दो गुफाएं भी आयी। संभवतः उनमें जानवर रहते हो।

                    जंगल का नयनाभिराम दृश्य, शीलत वायु, कलरव यात्रा को और भी आनंददायक बना देता है। पहाड़ी से नीचे गाँव दिखते हैं,  खेत नजर आते हैं, चारों तरफ फैली हरियाली नजर आती है।  इस रास्ते पर फोटोग्राफी का अपना अलग ही मजा है। कहीं विभिन्न आकृति लिए हुए पेड़ हैं तो कहीं पहाड़ी कुछ आकृति बनाये खड़ी है। कहीं से नीचे खेत नयन को सुकून देते हैं तो कहीं बादल फोटो में बहुत अच्छे आते हैं। 

कुछ प्राकृतिक दृश्य

    

                 

       इस रास्ते में एक छोटा सा परंतु दिल को सकून देना वाला स्थान है, कनैल कुण्ड। इसके नामकरण के पीछे क्या कारण यह तो नहीं पता।  मैं एक बार पहले भी कनैल कुण्ड तक आ चुका हूँ।

                     कनैल कुण्ड इस रास्ते के किनारे एक चट्टान पर  छोटा सा कुण्ड है जहाँ किसी ने एक शिव लिंग स्थापित कर दिया। इस कुण्ड में प्राकृतिक रूप से पहाड़ियों से पानी बह-बह कर आता रहता है। जब की बरसात हुये कई महिने बीत गये, बरसात के अभाव में पेड़-पौधे सूख गये पर यहाँ पानी निरंतर रिसता रहता है। जब मैं पहली बार यहाँ आया था तब मेरे मन में यह प्रश्न था की जब बरसात का मौसम नहीं होगा तब तो यह कुण्ड अवश्य सूख जाता होगा। लेकि‌न अब यह भ्रम दूर हो गया। 

                     जिस चट्टान पर यह शिव लिंग/कुण्ड स्थापित है उस पर से पानी रिसता रहता है, वहाँ उपर चढने के लिए कोई अच्छी व्यवस्था नहीं है।‌ सावधानी से उपर चढना पड़ता है। अगर हाथ-पांव फिसल गया तो फिर सीधा नीचे।  हम चारों मित्र सावधानी से उपर चढे। मेरे मन में एक प्रश्न आय वह पहला व्यक्ति कौन रहा होगा जिसने इस स्थल को खोजा और वह व्यक्ति कौन था जिसने यहाँ शिवलिंग स्थापित किया। वहाँ कुछ अगरबत्ती के पैकेट और माचिस भी थी। शिव की महिमा शिव ही जाने।

                     हम वहाँ कुछ देर रूके,फोटोग्राफी की  और पुन: सफर पर बढ चले।

         कुछ आगे चलने पर नक्की झील दिखाई देने लगती है। यहाँ से तीन रास्ते निकलते हैं। जो अनन्त: नक्की झील पर ही पहुंचते हैं। एक रास्ता 'अगाई माता' मंदिर होते हुए नीचे उतरता है दूसरा रास्ता सीधा नक्की झील पर उतरता है और तीसरा रास्ता 'टाॅड राॅक' होते हुए नक्की झील तक जाता है हमने यह तीसरा रास्ता चुना। इसी रास्ते पर बैठ कर नाश्ते का आनंद लिया। थकान के कारण और शीतल छाया में समोसे और कोल्ड ड्रिंक का मजा भी गजब था।

हालांकि हमें टाॅड राॅक नहीं जाना था इसलिए टाॅड राॅक के पीछे से निकल गये।

          यह सफर हम चारों के लिए बहुत मजेदार रहा।

चन्द्रावती- एक ऐतिहासिक स्थल

चन्द्रावती- एक ऐतिहासिक स्थल

22.02.2019 को आबू रोड़(ओर गांव में)  एक विवाह समारोह में जाना हुआ। इसी दौरान हमारे विद्यालय के पूर्व पुस्तकालय प्रभारी रणवीर सिंह चौधरी जी मिल गये। रणवीर जी आबू रोड़ के ही निवासी हैं। उनके साथ ऐतिहासिक स्थल चन्द्रावती देखने का सौभाग्य मिला।

           चन्द्रावती एक ऐतिहासिक स्थल है जो आबू रोड़ से लगभग पांच- छह किमी. दूर है। मेरा जहाँ भी जाना होता है, मेरी इच्छा होती है वहाँ की सभ्यता और संस्कृति को देखने और समझने की, वहाँ के धार्मिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक स्थलों को देखने की। चन्द्रावती तो एक ऐतिहासिक स्थल है उससे वंचित कैसे रहते। मेरे साथ शिक्षक मित्र श्यामसुंदर जी, हुकमचंद नामा जी भी थे।
           विशाल क्षेत्र में इस जगह का फैलाव है। जो की तारबंदी और झाड़ियों से घिरा हुआ है।
           यहाँ एक कलादीर्घा है, जिसमें चन्द्रावती की खुदाई में मिली प्राचीन मूर्तियाँ रखी गयी हैं। इनमें से कुछ मूर्तियों खण्डित हैं तो कुछ सही अवस्था में भी हैं।
           कहीं योद्धा का सिर तो है लेकिन धड़ नहीं है, कहीं धड़ तो मौजूद है लकिन सिर गायब है। कुबेर जी भी उपस्थित हैं लेकिन खाली हाथ।
            माँ सरस्वती आसन पर विराजमान है लेकिन हाथ में  खण्डित वीणा है। कहीं विष्णु जी अधूरे हैं, कहीं गणेश जी तो कही कीचक महाराज। सब कुछ अधूरा -अधूरा सा मौजूद है, लेकिन यह अधूरापन भी अपने समय को पूरा करता है, यही अधूरापन हमें इतिहास की जानकारी उपलब्ध करवाता है।




            जहाँ पर खुदाई हुयी थी, उस जगह पर तार बंदी करके उसे सुरक्षित रखा गया है, लेकिन वहाँ इतनी झाडियां आदि हैं‌ की अंदर जाना संभव ही नहीं, हाँ स्थानीय ग्रामीण ईंधन के लिए यहीं से लकड़ियाँ काट कार ले जाते हैं। उनके लिए जगह-जगह बिखरे इन प्राचीन भग्नावशेष का कोई महत्व नहीं है।
         इस तारबंदी के अंदर असंख्य प्राचीन‌ मंदिर, घर आदि के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं। कभी कितने हर्ष और उंगम से ये घर बने होंगे, कितनी आशा और उम्मीद के बसेरे रहे होंगे। आज अपने खण्डहर हो चुके अस्तित्व को निहारते ये मंदिर कभी न जाने कितने लोगों के आस्था के केन्द्र रहे होंगे, लोगों की मन्नतों को पूर्ण करने वाले आज ये स्वयं अपूर्ण हैं।

              चन्द्रावती के विषय में जो ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है उसके अनुसार इस स्थल की खोज सन् 1822 में कर्नल जेम्स टॉड ने की थी।
      पुरातत्व विभाग द्वारा लगाये गये एक शीला पट्ट के अनुसार - चन्द्रावती 11-12 वी शताब्दी ई. में परमारों राजाओं की राजधानी थी। इस वंश में यशोधवल एवं धारवर्ष प्रतापी शासक हुये। इस नगरी में बड़ी संख्या में शैव-वैष्णव और जैन मंदिरों और राजप्रसादों का निर्माण हुआ।  सन् 1303 ई. तक यह नगरी परमारों के अधिकार में रही, तत्पश्चात यहाँ देवड़ा चौहानों का शासन राज्य हो गया।  वर्ष 1405 ई. से सिरोही राज्य की स्थापना होने तक यह स्थल देवड़ा चौहानों की राजधानी रहा।
            दिल्ली-गुजरात के मुख्य मार्ग पर स्थित होने के कारण इस समृद्धशाली नगरी चन्द्रावती को आक्रांताओं द्वारा अनेक बार लूटा गया तथा यहाँ स्थित मंदिरों को क्षतिग्रस्त किया गया।  इन मंदिरों के शिल्प और वास्तुखण्डों को  चन्द्रावती के वास्तुदीर्घा में प्रदर्शित किया गया है। यहाँ के मंदिरों की स्थापत्य शैली और भव्यता का चित्रों सहित वर्णन सन् 1922 ई. में सुप्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार कर्नल जेम्स टाॅड ने अपनी पुस्तक 'वेस्टर्न इण्डिया' में किया है।
         समय चक्र निरंतर चलता रहता है आज तो वैभवशाली है कल को वैभवहीन हो सकता है। शायद यही चन्द्रावती का भाग्य रहा है। अपने समय की एक वैभवशाली नगरी आज वैभवहीन है। 999 मंदिरों की नगरी तो स्वयं में वैभवशाली रही होगी लेकिन आज वे सब मंदिर अतीत हो गये, कुछ के अवशेष बाकी रहे हैं। वह भी टूट कर, जमीन पर,  गिर जाने के बाद।
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कलादीर्घा से एक चित्र


कलादीर्घा के अंदर भी कुछ जानकारी अलग-अलग शीर्षक  एकत्र की गयी है। जैसे 'लघु पुरावशेष'(Minor Object) में‌ लिखा है- विभिन्न प्रकार के लघु पुरावशेष जैसे पकी मिट्टी से बनी चूड़ियाँ एवं मनके, लोहे और तांबे से बने धातु के औजार, शीशे से निर्मित वस्तुओं के अवशेष एवं पकी मिट्टी से बनी मनुष्य और जानवरों‌ की मूर्तियाँ भी प्राप्त हुयी हैं। इसके अलावा पकी मिट्टी से बनी अनेक कलात्मक वस्तुएँ भी प्राप्त हुयी हैं जिनको संभवत मनोरंजन हेतु प्रयुक्त किया जाता रहा होगा।

         अपने समय की एक ऐतिहासिक और शौर्यवान नगरी चन्द्रावती अपने भग्नावशेष के साथ आज भी जिंदा है। कभी यहाँ भी सब आबाद था लेकिन आज चारों तरफ सन्नाटा पसरा है, जहाँ कभी फूल खिलते थे वहाँ आज कंटीली झाड़ियां है। बिता समय कभी लौट कर तो नहीं आता, लेकिन हम उस समय को यादों में, वास्तु में समेट सकते हैं।
             ऐतिहासिक स्थल चन्द्रावती को आज संरक्षण की आवश्यक है, स्थानीय प्रशासन भी अगर सजग हो, ग्रामीण अगर सचेत हो तो यह स्थल पूर्णतः सुरक्षित रह सकता है।
बायें से- रमेश पुरोहित जी, रणवीर चौधरी जी, गुरप्रीत सिंह, हुकमचंद नामा, श्यामसुंदर जी।



            

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

पहाड़ पर क्राॅस


माउंट आबू में प्रसिद्ध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व के स्थलों के अलावा भी बहुत से छोटे-छोटे ऐसे स्थान है जो देखने योग्य हैं। ऐसे कई स्थान जो पुस्तकों में वर्णित नहीं, मैप पर नहीं और जहाँ पहुंचने के लिए सुगम रास्ता नहीं है।

                 ऐसा ही एक स्थान है 'पहाड़ पर क्राॅस'। माउंट आबू के प्रसिद्ध पोलो मैदान से एक पहाड़ी पर 'प्रभु यीशु का क्राॅस' नजर आता है। मेरे (गुरप्रीत सिंह) और मित्र मनोज कुमार राजोरा में कई बार इस विषय पर चर्चा होती थी कि उस पहाड़ी पर कब चलें। कभी समय न मिला, कभी इच्छा न हुयी तो कभी स्थानीय साथी न मिला जो उस पहाड़ी का रास्‍ता जानता हो।
                  रविवार (10.02.2019) को समय मिल ही गया। मैं, मनोज और हुकम नामा जी तीनों निकल पड़े।
                  "भाई, वहाँ जाने का रास्ता मुझे नहीं मालूम।"-मैंने कहा।
                  " जब निकल ही लिए तो रास्ता भी मिल जायेगा। किसी से पूछ लेंगे।"- हुकम‌ जी मे कहा।
                  इतना तो अनुमान था की क्राॅस वाली पहाड़ी गौमुख के रास्ते में आती है। एक बार जब हम गौमुख गये थे। तब वह क्राॅस देखा था। पहाड़ की एक यह विशेषता है की उस पर जो 'चीज' है वह दूर से तो नजर आती है लेकिन जब उसके पास पहुँचते हैं तो वह नजर नहीं आती और रास्ता, वह तो ढूंढना भी मुश्किल हो जाता है।
     ‌‌‌‌     रास्ता था ही ऐसा की चलते-चलते साँस फूलने लगता है। पहाड़ के रास्ते पर तो मजबूत पांव का आदमी ही चल सकता है। क्राॅस वाला पहाड़ तो नजदीक था लेकिन थकान भी भरपूर थी।      

               हम भी एक बार तो उस रास्ते से आगे निकल गये थे। आगे एक धार्मिक संस्थान था। वहाँ से क्राॅस वाली पहाड़ी का रास्ता पूछा तो पता चला की उसके लिए एक छोटा सा रास्ता है जो की पीछे रह गया।
                      उस पहाड़ी पर पहुंचने के लिए एक अनघड़ पगडंडी थी। उस घुमावदार रास्ते से हम उपर पहुंचे। पहाड़ी पर चढने का रास्ता जरा मुश्किल था, पर लंबा न था।
                      उपर पहुंच तो एक अलग ही नजारा था।‌ प्रभु यीशु की एक विशाल मूर्ति वहाँ स्थित थी। सफेद पत्थर से निर्मित, प्रभु यीशु सलीब पर लटके हुए। उपर पहुंचे तब तक थक गये थे।‌ उस पहाड़ी पर एकमात्र प्रभु यीशु की उस विशाल मूर्ति के  अतिरिक्त और कुछ नहीं था। मूर्ति की छाया में हमने विश्राम किया। वहाँ शांति थी, शीतल हवा थी।
            वहाँ पर घास खूबसूरत थी। घास सूख चुकी थी लेकिन उसका सौन्दर्य यथावत था। अगर वह घास  हरी होती तो नयन कभी भी तृप्त न होते। 

  हुकम जी ने तो दिल लूटा दिया घास पर। हुकम जी का विशेष शौक फोटोग्राफी है। उस घास पर जो एक बार लेट फिर तो विभिन्न एंगल से फोटोशूट होता रहा।

    ‌‌मनोज सर को घूमता का शौक है लेकिन फोटो का नहीं इसलिए वे पहाड़ी पर बैठ एक साधक की तरह शहर को निहारते रहे।


                       यहाँ से पूरा माउंट आबू शहर नजर आता था। कुछ समय हम तीनों मित्रों ने वहाँ फोटोग्राफी की। एक फोटो के  दौरान, उछलते हुए घुटने में दर्द हो गया। दर्द के कारण काफी परेशानी हुयी। हालांकि वह फोटो बहुत अच्छी आयी थी।

                       पहाड़ी पर उस मूर्ति के अतिरिक्त और कुछ न था। थकान और प्यास से परेशान थे। फोटोग्राफी और विश्राम के पश्चात हमने वहाँ से वापसी की।
                       लगभग तीन घण्टे की यह यात्रा रोचक और यादगार रही।