निशीथकाल। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और भगत सिंह पर चिंतन करते-करते गाँधी जी निद्रा लीन हो गये। चींटी मात्र में ईश्वर दर्शन करने वाले गाँधी जी का हृदय भगत सिंह की फाँसी की बात सुनकर विचलित हो उठा था।
निस्तब्ध रात्रि, सर्वत्र अँधेरा व्याप्त था।
गाँधी जी चौंककर उठ बैठे। सामने भगत सिंह खङा मुस्कुरा रहा था।
"बापू, चिंता ग्रस्त दिखाई दे रहे हो?"
"पुत्र फाँसी के फँदे पर हो तो बाप को चिंता तो होगी ही।"-थका सा स्वर था गाँधी जी का।
भगत सिंह ने हँसते हुए कहा-"बापू यह तो खुशी का समय है। मुझे देशभक्ति का सर्वोतम पुरस्कार मिलने जा रहा है।"
"पुत्र, तुम जैसे नौजवान ही तो निराश भारतीयों को रोशनी दिखा सकते हैं।"
"रोशनी करने के लिए तो स्वयं को जलना ही पङेगा।"
पलभर को मौन छा गया।
"बापू, मुझे एक वचन दो।"-भगत सिंह ने गम्भीर स्वर में कहा।
"बोलो पुत्र।"
"आप मेरे लिए अंग्रेज सरकार से रिहाई की अपील ना करना।"
"क्या ?"-गाँधी जी का आश्चर्युक्त स्वर।
"मैं क्षमा प्राप्त कर कायरों में स्थान प्राप्त नहीं करना चाहता।"-भगत सिंह ने दृढता से कहा।
"भगत, आज देश को तुम्हारी जरूरत है।"-गाँधी जी कहा।
"आज एक भगत सिंह खत्म होगा तो कल सैकङों भगत सिंह पैदा होंगे। इस नई क्रांतिकारी फसल की जिम्मेदारी आपकी है बापू, मैं तो क्राँति का बीज बो चला।"
वृद्ध आँखें आँसुओं से नम हो गई।
"बापू, आशीर्वाद दो।"
भगत सिंह आशीर्वाद लेने को झुका तो गाँधी जी ने आगे बढकर भगत सिंह को ह्रदय से लगा लिया। खाली बाँहें आपस में टकराई। गाँधी जी की नींद टूट गई। गाँधी जी उठकर बैठ गये। आँखें अभी तक नम थी, ह्रदय विचलित हो उठा। गाँधी जी देर तक शून्य में निहारते रहे।
-लघुकथा वर्तिका (लघुकथा संग्रह) दिसंबर-2013
प्रकाशक-विश्व हिंदी साहित्य परिषद, दिल्ली।
मार्मिक लघु कथा।
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